गिरमिटिया देश ही भारत के सच्चे साथी

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नई दिल्ली, 9 जनवरी। गिरमिटिया देश ही भारत के सच्चे साथी हैं। इसीलिए प्रवासी मंत्रालय का गठन किया गया और प्रवासी दिवस की संकल्पना की गई। यह उद्गार आज प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर आयोजित गिरमिटिया साहित्य और अनुभूतियां- चर्चा, संस्मरण और काव्य पाठ के दौरान अंतरराष्ट्रीय वेबिनार के अध्यक्ष डॉ विमलेशकांति वर्मा ने किए। वेबिनार का आयोजन उत्थान फाउंडेशन द्वारका द्वारा किया गया था। वेबिनार की आयोजिका और संचालिका अरूणा घवाना थीं।
बेविनार के दौरान अध्यक्ष विमलेशकांति वर्मा ने फिजी में अपने प्रवास की बातों को साझा करते हुए वहां के राष्ट्रकवि बाबू कुंवर सिंह को याद किया। अपने समापन वक्तव्य में वर्मा ने कहा कि गिरमिटिया देश ही भारत के सच्चे साथी हैं। जिसका अहसास भारत सरकार को था इसीलिए भारत में प्रवासी मंत्रालय का गठन किया गया और प्रवासी दिवस की संकल्पना भी की गई। भारत के प्रधानमंत्री आज उनसे मन की बात करते हैं, क्योंकि मन की बात अपनों से ही होती है और अपनी भाषा में ही। प्रवासी और हमारे बीच एक लिंग्वा-फ्रेंको है। कठिनाई वहां आती है जब लोग यह नहीं समझते कि बोलने वाली भाषा अलग होती है और काम करने वाली अलग। मानक हिन्दी के फेर में हिन्दी का भला नहीं होगा। रामायण से बंधे देश समझें कि भाषा गई तो संस्कृति गई, भाषा तभी बचेगी जब बोली जाएगी। त्रिनिडाड में बोलने वालों की कमी है, जिसका नुकसान वे झेल रहे हैं। भौगोलिक दूरियों के बावजूद भी खानपान-वेशभूषा, रीति रिवाज और आस्था विश्वास हिन्दी के भूमंडलीकरण का प्रमाण है।


भारतीय उच्चायोग मॉरीशस की द्वितीय सचिव (हिंदी एवं संस्कृति) सुनीता पाहूजा ने बताया कि मॉरीशस में भी भारतीयता ही बहती है। हिंदी मात्र भाषा नहीं संस्कृति है, जैसे बूढी मां के साथ बाजार जाना कभी नहीं अखरता, उसी तरह मातृभाषा हर जगह, हर हाल में प्रिय है। त्रिनिडाड में अपने प्रवास के संस्मरण सुनाते हुए बताया कि वहां लोग मानते हैं कि त्रिनिडाड मां है तो भारत ग्रैंड मदर-यानि ग्रैनी। उन देशों में संस्कृति, सभ्यता और धर्म को सहेज कर रखा है। खून में हिन्दू धर्म बहता इसलिए रामलीला के दिनों में मांस और मदिरा से पूरी तरह दूरी बना लेते हैं।
हिन्दी साहित्य अकादमी मॉरीशस के संस्थापक हेमराज सुंदर ने गर्व से कहा कि उनके पुरखों ने एक वीरान जगह को स्वर्ग बना ईख और चाय की खेती से यहां के लोगों को स्वाबलंबी बनाया। बॉलीवुड क्रेज के चलते हिन्दी सीखते थे। अवधी-भोजपुरी बोलियों के बल ही यहां हिन्दी का विकास हुआ।
हिन्दी प्रचारिणी सभा मॉरीशस के अध्यक्ष यतुदेव बुधु ने बताया कि यहां हिंदी का लेखक वर्ग ज्यादा है। गिरमिटियों के कारण ही हिन्दी और हिंदू को दुनिया में इतना प्रचार-प्रसार मिला।


भारत के विदेश मंत्रालय में कार्यरत भावना सक्सेना ने बताया कि गिरमिट शब्द सुन एक दर्द भरे दौर और शोषित वर्ग का चित्र उभर आता है। पर अब गिरमिटियों की तीसरी और चौथी पीढ़ी है। वे उन देश विशेष के सम्मानित प्रतिष्ठित समृध्द व स्थापित नागरिक बन चुके हैं। साथ ही सूरीनाम में अपने प्रवास के संस्मरण भी सुनाए।
फिजी से मनीषा रामरक्खा ने फिजी हिन्दी के साहित्यकारों और उनकी रचनाओं पर बात की। वहां हिंदी प्रेमी मानक हिन्दी बोलने का प्रयास करते हुए जरूर दिखते हैं। पूर्वजों की बदौलत ही यहां हिंदी स्थापित हो सकी, तभी वे आज हिन्दी पर इतना काम कर पा रहे हैं।
फिजी की कीर्ति शर्मा को दुख है कि वे अच्छी हिन्दी नहीं बोल पातीं। बताती हैं कि कोई भारतीय फिजी आता है तो उसे बिल्कुल भी बेगाने देश में होने का अहसास नहीं होता।
सूरीनाम से धीरज कांधाई मानते हैं कि यह उनके पूर्वजों के संघर्ष का ही परिणाम था कि आज वे लोग हिंदी जानते हैं जबकि आज की ही तरह तत्कालीन सरकारी तंत्र का रवैया हिंदी के प्रति उदासीन ही था।
त्रिनिडाड से रुकमिणी होल्लास ने बताया कि उनके पूर्वज बिहार से आए थे। यहां अंग्रेजी बोली जाती है। पर वे लोग आज भी भारतीयता को बचाए रखने के लिए हिन्दी अपने-अपने स्तर पर सीखते हैं।
मलेशिया से प्रो सुप्रामणि ने सुनीता की कविताओं की लय का आनंद उठाया। जबकि वे हिंदी नहीं जानते। 17वीं सदी में सु्दूर दक्षिण से मलेशिया होते भारतीयों के पलायन को उन्होंने क्रमवार बताया।
हिमाचल प्रदेश से प्रो लेखराम नेगी ने संस्मरण साझा करते हुए भारतवंशियों के साथ हो्ने वाले क्रिकेट मैच का जिक्र किया। चारू अग्रवाल ने प्रवासी साहित्य पर एक काव्य पाठ किया।
अंत में अरूणा घवाना ने गिरमिटिया पूर्वजों के प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करते हुए माना कि अनुभूति के बिना कोई भी साहित्य आकार नहीं ले सकता। भारतीय संस्कृति को पूरे विश्व में अनेकों-अनेक कठिनाइयां व अमानवीय यातनाएं झेलते हुए जिस तरह से व्यापकता प्रदान की, उसके लिए हम सदा उनके ॠणी व आभारी रहेंगे।


अरूणा ने कहा विश्व भर में भारत की भाषा और संस्कृति की व्यापकता को जानना, समझना और अपने पूर्वजों के योगदान के प्रति सम्मान प्रकट करना है। गिरमिटिया अपने साथ भारत से क्या-क्या ले गए, गठरी में बांध कर, यह सब हम कल्पनाभर कर सकते हैं। पर कहीं गठरी गुम हो गई, तो कहीं चोरी चली गई, कभी फट गई, कभी बिखर गई, तो क्या बचा, राम नाम और संगीत। निरतंरता की गठरी लिए हिन्दी के प्रचार-प्रसार में मगन मन कभी लेखक बन जाता है तो कभी गायक, कभी पुजारी तो कभी बटोही, पर रहता अपने में ही मगन, यहीं से मगन मन नई ऊंचाइयां छूने में कामयाब हो गए।
और अंत में उन्हें याद करते हुए-
रोई-रोई गिरमिटिया का होईहे
राम राक्खा है तो सब होईहे
आजी आजा याद आए तो क्या होइहे
राम का याद रखबा, सब दुख दूर होईहे

सभी भक्तियों में सर्वोपरि है देशभक्ति

 

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