वानप्रस्थ

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photo source: social media

यह जो सामने आप तीन-मंजिला धवल संगमरमरी भवन देख रहे हैं उसे बन्सल कुटिया कहते हैं। जनाब, चौंकिए मत, इसके मालिक जगदीशलाल बन्सल इसे कुटिया ही मानते हैं। उनका बचपन और भरी जवानी एक झोंपड़ी में गुजरे हैं और वे भगवान् के बहुत शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने उन्हें यह सब-कुछ दिया है। इसीलिए वे इसे प्रभु की कुटिया मानते हैं। जगदीशलाल ने जीवनभर हड्डे पेले हैं। एक मिल मजदूर से शुरू होकर एक छोटे-से मिल का मालिक बनने की कहानी में जोतोड़ मेहनत है तो प्रभु का प्रसाद भी। यह सौ प्रतिशत सत्य है कि अब तक का जीवन उन्होंने कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बाँधकर अपने परिवार के लिए और अपने परिवार के चारों ओर घूमकर बिताया है। लेकिन अब वह थक चुके हैं या शायद उनकी आँखों पर बँधी पट्टी कुछ खिसक गई है।
अब मूल कथा शुरू होती हैं यह कल शाम का किस्सा है। लाला जगदीशलाल बन्सल अपनी पत्नी, दोनों बेटों और बहुओं के साथ खाने की मेज पर बैठे थे।
“आज हम सब एक साथ हैं। मैं आप सभी से पूछना चाहता हूँ कि यह घर-परिवार सब कुछ कैसा चल रहा है?”
उन्होंने कहा तो कोई कुछ न समझ सका। सब प्रश्न भरी निगाहों से उनकी ओर ताकने लगे।
“मेरे कहने का मतलब यह है कि क्या कुछ ऐसा बाकी रह गया है जिसमें आपको मेरी मदद की आवश्यकता है?” बात को थोड़ा-सा खोलते हुए उन्होंने आगे कहा।
“आपकी आवश्यकता तो हमें जीवनभर रहेगी पिताजी।” बड़े बेटे के कहने के साथ ही बाकी सब भी उनकी ओर देखने लगे।
“नहीं बेटे, अब आप सबको खुदमुख्त्यार बनना होगा। मैंने अपनी और तुम्हारी माँ की आवश्यकता के लिए रखकर सब-कुछ आप दोनों के परिवारों के नाम कर दिया है। वकील आपको सब समझा देगा।” जगदीशलाल ने शान्त चित्त से कहा।
“आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, इन्हें तो पूरे जीवन आपकी जरूरत रहेगी।” पत्नी ने बीच में टोका।
“नहीं लक्ष्मी, अब इन्हें अपने फैसले स्वयं लेने की आदत डालनी होगी। अब ये उँगली पकड़कर चलने की उम्र बहुत पीछे छोड़ चुके हैं।”
“लेकिन क्यों, आप अभी मौजूद हैं।” पत्नी हैरान थी और थोड़ी-सी परेशान भी।
“लक्ष्मी, हम अपनी उम्र का एक पड़ाव पार कर चुके हैं। अब तक की जिन्दगी हमने इनके लिए जी है। अब आगे का जीवन में तुम्हारे साथ सिर्फ अपने और तुम्हारे लिए जीना चाहता हूँ। और बेटे, अब मैं आपको छोटे-छोटे राय-मशविरे देने के लिए उपलब्ध नहीं हूँ, हाँ! जिन्दगी की किसी विशेष परिस्थिति में आप मुझे याद कर सकते हो।”
इसके बाद जगदीशलाल प्रसन्नचित हो भोजन करने लगे। पत्नी शायद उनकी बात समझ चुकी थी लेकिन बेटे और बहुओं की निगाहों में हजारों प्रश्न थे जिनका अब कोई उत्तर नहीं मिलना था।

मधुदीप

(मेरी चुनिन्दा लघुकथाएँ से साभार)
दिशा प्रकाशन
138/16, त्रिनगर,
दिल्ली-110 035.

मधुदीप की लधुकथाः लौटा हुआ अतीत

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