सरकार जितना अधिक फिल्ममेकर को आमंत्रित करेगी, हिमाचल को उतना ही लाभ होगाः अजय सकलानी

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हिमाचल प्रदेश में फिल्म निर्माण को लेकर वरिष्ठ लेखक-पत्रकार एस.एस. डोगरा ने प्रथम हिमाचली फिल्म साँझ के निर्माता अजय सकलानी से फोन पर लंबी अंतर्वार्ता की। इस साक्षात्कार को शब्दों में पिरोया है काजल मिश्रा ने। प्रस्तुत है वार्ता के प्रमुख अंश…

हिमाचल प्रदेश की फिल्म पॉलिसी के बारे में बताएं।
एक ड्राफ्ट 10 जून 2019 को बना था। जो पहले एक ड्राफ्ट था, वह पॉलिसी नहीं बन पाई थी, जिसे मेरे ख्याल से अधिकारियों ने ही ड्राफ्ट किया था। इसमें कोई भी सिनेमा से जुड़े हुए लोग नहीं थे। तो उसकी एक कमेटी बननी थी और फिर उस कमेटी ने ही उसे अंतिम रूप देना था। जिसमें दो कमेटियों का गठन किया जाना था। पहली कमेटी के रूप में हिमाचल फिल्म विकास परिषद का गठन करना था। जिसके अंतर्गत् उन्हें पॉलिसी बनाकर उसे अंतिम रूप देना था तथा दूसरी कमेटी में प्रोजेक्ट को मंजूरी दी जानी थी। इन दो कमेटियों में यही होना था लेकिन, यह आज तक नहीं हुआ।

एक फिल्मकार होने के नाते आप क्या उम्मीदें रखते हैं? क्योंकि आप हिमाचली सिनेमा एक तरह से लीड कर रहें हैं। बावजूद इसके भी आपको संघर्ष करना पड़ा। इस दौरान आपकी क्या पीड़ा रही? ऐसे में आप सरकार और लोगों से किस तरह के सहारे की उम्मीद करते हैं? जो हिमाचली सिनेमा, कलाकारों और सौंदर्य को प्रोत्साहित कर सकती है? इस पर आप क्या सुझाव देंगे?
देखिए, मेरे सुझाव में सबसे पहले तो एक फिल्म पॉलिसी का गठन हो, जिसमें फिल्म जगत से जुड़े लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। यह तो वही बात हो जाएगी कि आप स्पोर्ट्स को लेकर बात कर रहे हैं और उसमें स्पोर्ट्स से जुड़े लोग ही नहीं होंगे तो उसका कोई फायदा नहीं रहेगा। इसी तरह से फिल्म मेकिंग को लेकर कोई पॉलिसी बनती है तो उसमें फिल्म से जुड़े लोगों का होना जरूरी है। फिर चाहे वे लोग परिषद में हो या कमेटी में। लेकिन इसमें कुछ सदस्य ऐसे हो जो हिमाचल से जुड़े हों, ताकि वे हिमाचली कल्चर को बखूबी समझें, जिससे पॉलिसी लाने में मदद मिल सके।

अजय जी, आपके क्या विचार हैं, हिमाचल में फिल्म बनाने खासतौर पर कलाकारों के उद्धार को लेकर इस नजरिए से आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
देखिए, इसको लेकर इन्होंने पॉलिसी में काफी कुछ चीजें पहले से रखी हुई हैं। जैसे अगर कोई हिमाचली भाषा में फिल्म बनाता है तो ये उसको 50 लाख रुपये तक की सब्सिडी देंगे।

क्या इससे पहले यह सब्सिडी किसी को मिल चुकी है?
अभी तो इन्होंने इसको शुरू ही नहीं किया है। यह एक ड्राफ्ट पॉलिसी थी, जिसे इन्होंने अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया है। इस ड्राफ्ट पॉलिसी में इन्होंने हिमाचली फिल्मों के लिए 50 लाख रुपये का प्रावधान रखा था। लेकिन उसमें आगे की जानकारी नहीं थी कि किस आधार पर उसे हिमाचली फिल्म माना जाएगा या उसका भाषा के साथ क्या संबंध रहेगा। उसके क्या मापदंड रहेंगे और तकनीकी रूप से क्या आवश्यकताएं रहेंगी। इसके बारे में स्पष्ट नहीं था। हालांकि, यह एक अच्छा विकल्प है। परंतु इसका दूसरा विकल्प देखें तो उस हिसाब से यह एक अच्छा विकल्प नहीं है। क्योंकि यदि कोई हिन्दी सिनेमा बनाता है तो ये उसको 2 करोड़ रुपये की सब्सिडी देंगे। वहीं, हिमाचली फिल्म को 50 लाख की सब्सिडी मिलेगी।

अजय जी, तो ये हिंदी फिल्म को किस आधार पर यह सब्सिडी देंगे?
जी, इसे किस आधार पर है रखा गया है, इसके बारे में इन्होंने स्पष्ट नहीं किया है, जो बहुत गलत है।

लोकेशन या कलाकारों को लेकर इन्होंने क्या रखा है?
इस तरह से बात करें तो, इन्होंने यह रखा है कि फिल्म 50 फीसदी तक सिर्फ हिमाचल में शूट हो तो ये उसको 2 करोड़ रुपये तक की सब्सिडी देंगे। अब यह 2 करोड़ फिल्म के बजट से संबंधित होगा या नहीं होगा यह स्पष्ट नहीं किया था। लेकिन, इसमें चिंता का विषय यह था कि जिस हिन्दी फिल्म को ये 2 करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रहे हैं, उसमें शर्त यह है कि जो भी प्रोड्यूसर उस फिल्म को बनाएगा उसकी पहली तीन फिल्में राष्ट्रीय स्तर पर रिलीज होनी चाहिए और जब वह अपनी चौथी फिल्म बनाएगा तभी जाकर ये उसे हिन्दी फिल्म के लिए 2 करोड़ रुपये की सब्सिडी देंगे। तब मेरी उस समय के असिस्टेंट डायरेक्टर-कम-डिस्ट्रिक्ट पब्लिक रिलेशन ऑफिसर (क्च्त्व्) से बात हुई थी कि आप इस पॉलिसी में थोड़ा बदलाव कीजिए। जिसमें मैंने कहा था कि इसमें आप जो हिन्दी फिल्म के लिए सब्सिडी दे रहे, उसमें आप तीन फिल्मों के बाद चौथी फिल्म के लिए सब्सिडी देंगे, तो इसे आप उन प्रोड्यूसर के लिए रखिए जो हिमाचल के बाहर से हैं। लेकिन, अगर कोई हिमाचली प्रोड्यूसर है तो उसके लिए यह तीन फिल्मों वाली शर्त हटा दीजिए। इससे क्या होगा कि हिमाचली सिनेमा, कलाकारों और प्रोड्यूसरों को प्रोत्साहन मिलेगा। ऐसे में वो हिन्दी फिल्मों की शुरुआत ही नहीं कर पाएगा और अगर करेगा तो हिमाचली फिल्म से करेगा, जिसमें उसे सब्सिडी मिलेगी। लेकिन, तब उसकी ये तीन फिल्में फीचर फिल्म में नहीं गिनी जाएंगी। तो इस तरह की कुछ चिंताएं थी। मगर अभी तक इसमें कुछ अपडेट नहीं आया है। परंतु, उस समय पर उन्होंने इसे पूरा वेबसाइट पर पब्लिश कर दिया। इन्होंने अखबारों में विज्ञापन दे दिया, यही नहीं उन्होंने उस समय पूरे हिमाचल में बड़े-बड़े बैनर लगवा डालें कि हम हिमाचली प्रोड्यूसर को 50 लाख रुपये की सब्सिडी दें रहें हैं। इसका नकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि जब मुझसे बहुत से लोग मिलते हैं तो कहतें कि आपको तो हिमाचल सरकार 50 लाख रुपये दे रही है। मगर यह वास्तविकता नहीं है।

जब आपकी असिस्टेंट डीपीआरओ से बात हुई तो यह मौखिक रूप में हुई या फिर कोई पत्र व्यवहार भी हुआ था?
जी देखिए, हमारी मौखिक रूप में और औपचारिक तौर पर एक मीटिंग भी हुई थी। जिसमें फिल्म जगत के लगभग बीस लोग मौजूद थे, जो कि हिमाचली थे। तो हम लोग मुख्यमंत्री से शिमला मिले थे। लेकिन, यह इस पॉलिसी से पहले की बात है। यह दिसंबर 2017 की बात है ये जब यह नए ही आए थे। बकायदा मुख्यमंत्री आवास में हमारी मीटिंग हुई थी। तभी उन्होंने किसी को नियुक्त किया था, फिलहाल मैं उनका नाम भूल रहा हूं। उस मीटिंग में उन्होंने भाषा और संस्कृति विभाग के डायरेक्टर और पर्यटन विभाग के डायरेक्टर दोनों को बुलाया था। उस समय पॉलिसी बनाने को लेकर सबसे सामने बात हुई थी। इसके बाद यह भी बात हुई थी जो कलाकार हैं, उनको भी खासतौर पर यहां पर आमंत्रित किया जाए और एक हफ्ते का खास सत्र रखा जाए, ताकि उनकी राय लेकर इस पॉलिसी को अंतिम रूप दिया जा सके। मगर फिर क्या हुआ ना ही किसी को बुलाया गया और ना ही किसी को बताया गया। फिर बाद में इन्हीं के लोगों ने पॉलिसी को तैयार करके 2019 में इसे वेबसाइट पर डाल दिया। लेकिन यह पॉलिसी नहीं थी, यह केवल दो-तीन लाइन का ड्राफ्ट था। जिसे इन्होंने हिमाचल प्रदेश फिल्म 2019 करके डाला था। आप इसे इनकी वेबसाइट पर जाकर पढ़ सकते हैं।

लोग इस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं और आप जैसे फिल्मकार जिन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिल चुकी, बावजूद इसके राज्य स्तर पर कोई भी मदद नहीं मिल पा रही है, इसका क्या कारण है? आपने ऐसी क्या खामियां देखी हैं?
दरअसल, इससे पहले उन्होंने निचले स्तर पर एक और शुरुआत की थी। जिसके अंतर्गत् वे भाषा और संस्कृति विभाग की ओर से शॉर्ट फिल्म और डाक्यूमेंट्री बनाने के लिए 10 लाख रुपये की फंडिंग दे रहे थे। जिसे इन्होंने 2018 में शुरू किया, जिसमें उन्होंने 8 से 10 प्रोजेक्ट को कमिशन किया। लेकिन इसमें चिंता का मुद्दा यह रहा कि इन फिल्मों की स्क्रीनिंग कहां की जाएगी और दूसरा मुद्दा ये रहा कि इसमें आपको 75 फीसदी तक या अधिकतम 10 लाख रुपये की सब्सिडी शूटिंग के लिए दी जाएगी। लेकिन, प्रोजेक्ट खत्म होने के बाद फिल्म के सभी राइट्स सरकार के पास रहेंगे। और जो आपको 75 फीसदी सब्सिडी दी जाएगी वो आपको शूटिंग में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों के खर्च पर दी जाएगी। वहीं, मेरी चिंता यह थी कि जो आप दे रहे हो उसके अलावा हमारी जो रचनात्मकता (creativity) है उसके लिए आप मुझे कुछ भी भुगतान नहीं कर रहे हो और बाकि का जो 25 फीसदी पैसा मुझे मेरी जेब से डालना है। इसके बाद आप सभी राइट्स भी रख रहे हो तो उसके लिए मैं क्यों अप्लाई करूँ।

तो क्या निर्माता के तौर पर आपका कहीं भी नाम नहीं था?
नाम तो रहेगा! मान लीजिए मैं एक लाख रुपये में कोई फिल्म बनाता हूं। उसमें मुझे ये 75 हजार रुपये देते हैं और कहतें हैं कि हम आपको कैमरे वगैरह और बाकी के उपकरणों के किराया का खर्चा मिलाकर 75 हजार रुपये दें देंगे। जिसमें इन्होंने एक साल तक का समय मांगा था। यदि मैं एक साल तक के लिए किसी प्रोजेक्ट पर काम करता हूं तो जिसमें मुझे ये 75 हजार रुपये देते हैं और उसमें बाकी के 25 हजार मैं अपने पास से लगाता हूं। जिसके बाद मैं उसका कुछ भी नहीं कर सकता हूं। जिसके सभी राइट्स सरकार के पास हैं तो मैं उसमें क्यों ही अप्लाई करूंगा। तो ये इन्होंने कुछ शुरुआत की थी, जिसे 2018 के बाद बंद कर दिया था। हालांकि, कुछ लोगों की फिल्में कमिशन हुईं थी लेकिन, उनके नाम मुझे नहीं पता है।
जहां तक बात आती है हिमाचली फिल्म मेकर और कलाकारों को प्रोत्साहन देने की तो पहली बार थिएटर में हिमाचली भाषा में फिल्म रिलीज हुई है, जिसके बारे में इन्हें पता भी नहीं है। वहीं पर अगर मैं स्पोर्ट्स में जाकर एक मेडल लेकर आता तब मुख्यमंत्री मुझे विशेष रूप से बुलाकर सम्मानित करते। कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार की ओर से फिल्म मेकिंग की तरफ मुझे कोई दृष्टिकोण नजर ही नहीं आया। क्योंकि आप लोग उसकी सराहना ही नहीं कर रहे हो। वहीं, जब मैं स्पोर्ट्स में कुछ करता हूं तब मेरी खूब प्रशंसा कर रहें हैं। हालांकि, फिल्म मेकिंग को लेकर फिलहाल सरकार की ओर से कुछ नहीं किया गया है। और फिल्म पॉलिसी को लेकर बहुत सारी चीजें इन्होंने लिखी तो थी। लेकिन, आज तक उसे लेकर कोई काम हुआ ही नहीं तो आगे भी कहना मुश्किल है। कलाकारों को और किस तरह से प्रोत्साहन दे सकते हैं, यह तो सरकार को सोचना पड़ेगा, क्योंकि जब तक सरकार इस बारे में कुछ सोचेगी नहीं तब तक कुछ नहीं किया जा सकता है।

हिमाचल में आपको थिएटर का हाल तो ज्ञात ही है, आपके हिसाब से यहां के 12 जिलों में कुल कितने थिएटर होंगे?
हमारे पास पूरे हिमाचल में कुल मिलाकर 14 थिएटर हैं। जिनमें से 2 थिएटर नहीं चल रहे हैं। फिलहाल अभी यहां 12 थिएटर चालू हैं। इनमें से हमीरपुर में 2 हैं। एक छोटा है जिसकी क्षमता 60-70 लोगों की है और एक थोड़ा बड़ा है जिसमें 150-200 लोगों की बैठने की क्षमता है। इसमें दोनों में ही दो-दो स्क्रीन हैं। दोनों ही गांधी चौक पर हैं। लेकिन, थिएटर में फिल्म रिलीज करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। मुझे याद है, जब मैंने अपनी पहली फिल्म साँझ रिलीज की थी तो थिएटर वालों से बहुत लड़-झगड़कर लगवाई थी। वो कहते थे कि हमारे यहां हिमाचली भाषा में फिल्म नहीं चलती है।

तो आपकी फिल्म थिएटर में कैसे लगी? आपने किस तरह से डिस्ट्रीब्यूटर का प्रबंधन किया?
जी, वो एक तरह से हमने खुद ही डिस्ट्रीब्यूट की थी। हमें किसी तरह से मदद नहीं गई थी। वो तो हमने मुंबई से अपलोड करके, खुद ही सभी थिएटर वालों से बात करके उनसे विनती करके कि हमारी फिल्म भी लगा दो, एक शो हमें दे दो। कुछ थिएटर वालों ने तो सीधे लगा दी थी। और कुछ ने हमें मना कर दिया था। जैसे मंडी थिएटर वालों ने मना कर दिया था कि हम लगाएंगे ही नहीं। मैंने उन्हें समझाया कि देखिए हमारे सभी कलाकार मंडी से हैं। मैं डायरेक्टर खुद मंडी से हूं। तो उन्होंने मना ही कर दिया हम लगाएंगे ही नहीं।

क्या बिजनेस कम होने के डर से लोग थिएटर में इस फिल्म को लगाने के लिए तैयार नहीं थे या इसकी कोई और अन्य वजह थी?
दरअसल, लोगों को पता ही नहीं था कि हिमाचली में भी फिल्में बनती हैं। उन्हें ये लगता था कि पहले की तरह डीवीडी वाली या यूट्यूब वगैरह वाली फिल्म होगी। लेकिन, उनको समझा कर की ये एक अंतरराष्ट्रीय प्रशंसित फिल्म हैं। इसके लिए हमें काफी पुरस्कार मिल चुके हैं। यह एक अलग फिल्म है। तब कहीं जा कर कुछ थिएटर वालों ने इस फिल्म को लगाया था। पर, धर्मशाला थिएटर ने पहले तो मना ही कर दिया था कि हम लगाएंगे ही नहीं। उनके साथ कुछ दिनों तक विवाद रहा, लेकिन बाद में समझाने के बाद उन्होंने वीकेंड में ना लगाकर पिक्चर को सोमवार, मंगलवार और बुधवार को लगाया। हालांकि, वीकेंड में नहीं लगाए जाने के बावजूद हमारी फिल्म धर्मशाला में हॉउसफुल हो गई थी।

जितना आपके बारे में पता चलता है कि आप मल्टी-टास्किंग है। राइटिंग से लेकर निर्देशन तक खुद ही करते हैं और प्रोड्यूसर भी हैं। ऐसे में किसी ने आप तक पहुंचने की कोशिश की या आपने उन तक पहुंचने का प्रयास किया?
फिलहाल अभी तक इस तरह से कुछ रहा नहीं है। मेरी फिल्म “साँझ” के बाद लोगों के दिमाग में ये नहीं रहा था कि फिल्म क्या है, कैसी है? उनके दिमाग में यही था कि लोकल फिल्म या लोकल भाषा में फिल्म बनाई है, क्योंकि अधिकांश लोगों को मालूम ही नहीं है कि हिमाचली भाषा में भी फिल्म बनती है। लोकल भाषा में फिल्म बनने का मतलब उनके लिए था कि जैसे भोजपुरी भाषा में फिल्म बनती है। तो उन्होंने उसे रीजनल फिल्म समझ लिया और वो रीजनल शब्द के बजाय लोकल शब्द इस्तेमाल करते हैं।

आपकी फिल्म “साँझ” के ट्रेलर को मैंने देखा है, उसमें कोई भी अंग्रेजी सबटाइटिल नहीं है तो फिर कैसे आपकी फिल्म को बिना अंग्रेजी सबटाइटिल के अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली?
ऐसा नहीं है अंग्रेजी सबटाइटिल रहते हैं। क्या होता है हम सबटाइटिल को फिल्म के साथ अपलोड नहीं करते हैं। देखिए ये दो तरह से होता है। जब फिल्म रिलीज होती है तो फिल्म के साथ एक अलग से सबटाइटिल ट्रैक जाता है। तो उसमें हम वो स्वतंत्र सबटाइटिल ट्रैक अपलोड करते हैं। पहले क्या होता था कि सबटाइटिल को साथ में रेनडर करना होता था। लेकिन, अब आप अलग से एक सबटाइटिल ट्रैक रिकॉर्ड करके अपलोड कर सकतें हैं। इससे यह फायदा रहता है कोई भी सबटाइटिल को अपनी मर्जी से चालू और बंद कर सकता है।

आपकी आने वाली नई फिल्म के लिए शुभकामनाएं! क्या आपने कोई फिल्म कोर्स किया हुआ है?
जी नहीं! मैंने इसके लिए कोई कोर्स नहीं किया है, जो भी कुछ भी सीखा है सब स्वयं से। काम करता गया और सीखता रहा और उसी तरीके से आगे बढ़ता गया।

मेरे ख्याल से अभी आपकी उम्र भी कम होगी। फिलहाल अभी कितने वर्षीय हैं? और क्या पहले कभी कोई आपके परिवार से इस क्षेत्र में काम कर चुका है?
फिलहाल, अभी मेरी उम्र लगभग 38 साल के आसपास है। जी, नहीं मेरे परिवार से कोई भी इस क्षेत्र से नहीं जुड़ा हुआ है।

बात करें आपके सफर की तो आपके परिवार के लोगों ने, दोस्तों ने और हिमाचली समुदाय ने आपको किस तरह से प्रेरित और प्रोत्साहन दिया है? उनका कितना योगदान रहा है?
जी, परिवार के सहारे और उनके प्रोत्साहन के बिना कुछ भी संभव नहीं है। मेरे परिवार ने मुझे हर मुमकिन सहारा दिया है। हालांकि, मेरे पिता जी भारतीय सेना से बतौर लेफ्टिनेन्ट कर्नल रिटायर्ड हैं। वे हमेशा यही चाहते थे कि मैं भी सेना में भर्ती हो जाऊं। हालांकि, वे इस बात से काफी नाराज रहे थे। कभी-कभी डांट भी पड़ जाया करती थी। परंतु, बाद में उनकी ओर से भी प्रोत्साहन मिला। बल्कि, “साँझ” की शूटिंग के दौरान मेरा पूरा परिवार मेरे साथ सेट पर मौजूद रहा करता था। मेरी पत्नी भी मेरे साथ सेट पर रहा करती थीं। इतना ही नहीं मेरे चाचा जी ने पूरे ट्रांसपोर्ट और फूड का जिम्मा उठाया हुआ था। कुल मिलाकर मुझे मेरे परिवार का पूरा सहारा और साथ था।

स्वतंत्र फिल्म निर्माता बनने से पहले, क्या आप बॉलीवुड के प्रोजेक्ट भी कर चुके हैं?
जी, 2015 में मैंने “पीके” फिल्म पर काम किया था। लेकिन मैं इस क्षेत्र में 2004 से काम कर रहा हूं। मैंने कई टीवी चैनल के लिए काम किया है- mh 1, Ptc Punjabi, एक साल मैं महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी, वर्धा में बतौर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का टीचर रहा। इतना ही नहीं मैंने एक न्यूज चैनल में बतौर प्रोड्यूसर और डायरेक्टर भी काम किया है। मैंने कई प्रोजेक्ट पर काम किया है। इतना ही नहीं मैंने साल 2012 और 2017 में हिमाचल सरकार के चुनावी अभियानों की शूटिंग बतौर डीओपी की है। दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी के चुनावों को मैंने ही कवर किया था।

हिमाचली कलाकारों के साथ काम करने का आपका अनुभव कैसा रहा?
“साँझ” में केवल दो कलाकारों को छोड़कर सभी कलाकार हिमाचली ही थे। क्योंकि हम पहली बार हिमाचली फिल्म बना रहे तो और सभी कलाकार पहली बार ऐसा कंटेंट देख और शूट कर रहे थे। जिसके चलते हमें कई टेक लेने पड़ रहे थे। जिसकी वजह से वे थोड़ा घबरा जाते थे, लेकिन बाद में सब कुछ ठीक हो गया था। सभी आर्टिस्ट ने बहुत बढि़या काम किया। मुझे सबके साथ काम करके बहुत ही अच्छा लगा था।

फिल्म शूटिंग के दौरान आपको क्या-क्या दिक्कतें आईं और शूटिंग के लिए मंजूरी लेते समय किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा?
शूटिंग के दौरान हमें काफी मुसीबतों को झेलना पड़ा। जैसे जो शूट हमको कुल्लू में करना था वो हमें शंगढ़ में करना पड़ा। दूसरा हमें जातिवाद को भी झेलना पड़ा। पंडितों के घर हम शूट नहीं कर सकते थे, क्योंकि उनके घर में बेड लगा सकते थे। राजपूतों को घर में शूट करने की अनुमति नहीं थी, हमारी टीम अलग-अलग जाति से थी। हमारी टीम को घर के अंदर जाने ही नहीं दे रहे थे। इसके बाद जब हम छोटी जाति के घर में शूटिंग कर रहे थे तो वहां लोग कहने लगे कि वहां शूटिंग क्यों कर रहे हो? शूट को बंद करो। खैर, ऐसी सब चीजें तो चलती रहती हैं।
प्रशासन की ओर से काफी तकलीफ रही। हर रोज हमसे पैसे की मांग करते रहे। वन विभाग की ओर से हमसे 25 हजार प्रतिदिन शूटिंग करने के लिए मांगे गए। क्योंकि वो ग्रेट हिमालयन नेश्नल पार्क (GHNP) का क्षेत्र आता है और हमसे बोला गया कि ये ईको जोन है तो यहां शूटिंग करने की मंजूरी के लिए 25 हजार रुपये रोज देने होंगे। हालांकि, मैंने मना कर दिया था। मैंने कहा कि जो हम शूटिंग कर रहे हैं वो लोगों की निजी जमीन पर कर रहे हैं न कि सरकारी जमीन पर। इसके बाद में, उन्होंने हमारे साथ दो गार्ड रख दिए। जितने दिनों तक हमने वहां शूटिंग की तब तक वे गार्ड हमारे साथ ही रहे थे। एक तो ये परेशानी रही।
दूसरी, इसके बाद एक दिन कुल्लू के डीएसपी आ गए। उन्होंने हमारे सामान को बाहर निकाल दिया, जहां हम रह रहे थे। वे कहने लगे हम यहां पर ड्रग्स बेचने में लगे हैं। हमने कहा कि सर ऐसा कुछ भी नहीं है। हम यहां बस अपना काम करने में लगे हुए हैं। हालांकि, मुझे सब समझ में आ रहा था कि इसके पीछे कुछ राजनीतिक दबाव है। क्योंकि हमने पैसे नहीं दिए थे जिसकी वजह से हमें परेशान किया जा रहा था। कुल्लू के डीएसपी के साथ बुनकर
के SHO भी थे। खैर, ये सब तो चलता रहता है।

क्या आपने वहां के संबंधित पुलिस थाने को शूटिंग करने से पहले सूचित किया था?
जी, हमने बकायदा इजाजत ली थी, बावजूद इसके भी हमें इन मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जैसे हम जब “गूगली“ फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो उस समय भी मैं प्रशासन के खिलाफ चला गया था, क्योंकि उस समय भी उन्होंने हमसे 25 हजार रुपये एडवांस्ड मांगे थे और इसके बाद अगर हमारी शूटिंग 5 दिन से अतिरिक्त दिन ऊपर हो जाती है तो हमें प्रतिदिन 5 हजार रुपये के हिसाब से भुगतान करना होता। हम जिस जगह शूट कर रहे थे उसके लिए। हम ट्रैकिंग के लिए ऊपर पहाड़ पर जा कर शूटिंग कर रहे थे। तब हमें बोला गया कि ये वन विभाग का क्षेत्र है। तो आपको इतना भुगतान करना होगा। तब उस समय वन विभाग के मंत्री वरुण ठाकुर को फोन कर दिया था, जो मनाली से विधायक थे। तो मैंने उन्हें फोन करके कहा कि सर हमें मंजूरी दे दीजिए अभी हमारा इतना बजट नहीं है। लेकिन उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि आपको उचित माध्यम से जाना होगा और जो हमारा रेट है वो देना होगा। जबकि वहीं थे जिन्होंने मुख्यमंत्री से मीटिंग करवाई थी और कहा था कि हिमाचल के लिए कुछ करना है। इसपर मैंने बोला कि सर तब तो आप ऐसा कह रहे थे और आज पैसे देने की बात कह रहे हो। फिर मैंने सर से कहा कि मैं कोई भी नियम का पालन नहीं करने वाला हूं मैं शूट के लिए ऊपर जा रहा हूं। इसके लिए मैंने पर्यटन विभाग से मंजूरी ले ली है और धर्मशाला पुलिस प्रशासन के पास मैंने लेटर भेज दिया है। यदि आपको लगता है इसके लिए आपको कोई कार्यवाई करनी है तो कर लीजिए। अगर मुझे अपने राज्य में शूटिंग करने के लिए पैसे देने पड़ेंगे तो मैं नहीं दूंगा क्योंकि मुझे सरकार ना तो इसके लिए कुछ दे रही है और न ही मेरी सहायता कर रही है। और यह मेरा राज्य है, मेरा इतना तो हक बनता है कि मैं यहां कहीं पर भी शूटिंग कर सकता हूं। जबतक मैं यहां किसी को परेशान नहीं कर रहा हूं या प्रशासन का कोई फायदा उठा रहा हूं।

जैसा कि हिमाचल में भाजपा और कांग्रेस की सरकारें आती जाती रहती हैं, तो क्या आपके ऊपर कभी किसी सरकार की ओर से राजनीतिक दबाव रहा?
नहीं, ऐसा तो कभी कुछ नहीं रहा। किसी भी तरह का पॉलिटिक्ल दबाव हमारे ऊपर नहीं रहा। हां लेकिन, जब हम “साँझ” की शूटिंग शुरू करने की तैयारी कर रहे थे तब उस समय यहां कांग्रेस की सरकार थी, तब हमने उनके समक्ष मदद के लिए प्रस्ताव रखा था कि किस तरह आप हमें और हिमाचली सिनेमा को कैसे प्रोत्साहन दे सकतें हैं। मुख्यमंत्री से भी मिले थे हम उस समय। उन्होंने आश्वासन दिया था कि हम किसी-न-किसी रूप से सहयोग करेंगे लेकिन, वो मदद मिली नहीं। फिर उसके बाद अनुराग ठाकुर केंद्र में मंत्री थे उनसे मिले थे, जे.पी नड्डा से भी मिले थे। उन्होंने भी विश्वास दिलाया कि आप दिल्ली आइए हम इसपर बैठ कर काम करेंगे। फिर हम दिल्ली आएं और अनुराग ठाकुर के कार्यालय के बाहर बैठे रहे। उन्होंने मिलने के लिए तो बुला लिया, मगर मिलने के लिए समय नहीं दिया और जब टाइम दिया तो उन्होंने कह दिया कि हम इस पर कुछ नहीं कर सकते हैं। यही सब रहा, बाकी हमारी तरफ से ऐसा नहीं रहा कि हमने कोशिश नहीं की। हमने अपनी तरफ से सरकार को औपचारिक तौर पर पत्र दिए थे कि आप किस प्रकार से हिमाचली सिनेमा को मदद कर सकते हो। तो अब ना तो हमारे पास राज्य सरकार की ओर से कुछ रहा और न ही हमारी ओर से जो केंद्र में सांसद थे उनकी ओर से कुछ रहा।

जैसा कि आपने बताया, आपने चुनाव अभियान को भी कवर किया था, क्या आपने यह किसी पार्टी के साथ मिलकर किया था या स्वतंत्र रूप से?
ऐसा होता है कि जो ये प्रोजेक्ट होते हैं, ये सब प्रोडक्शन हाउस के पास जाते हैं। उस वक्त जब मैंने हिमाचल वाला 2012 वाला इलेक्शन कैंपेन किया तो उस समय ये प्रोजेक्ट सरकार ने चंडीगढ़ के एक डे एंड नाइट न्यूज चैनल को दिया था। तो चैनल की ओर से मुझे नियुक्त किया गया था। जिसके बाद मैंने इसे बतौर डायरेक्टर शूट किया था। हालांकि, ये चैनल 2014 या 2015 में बंद कर दिया गया था।

हिमाचली परिवेश को लेकर बात करें तो आपके और पवन के अलावा ऐसे और कितने फिल्म मेकर होंगे जिन्होंने गंभीरता के साथ काम किया है?
जी, इस परिवेश में मेरे और पवन के अलावा और कोई नहीं है। फिलहाल हम दो ही लोग हैं, जिन्होंने इसमें काम किया है। बाकी जो लोग हैं हिमाचली में वीडियो गीत बनाने वाले हैं।

अजय जी, जैसे हिमाचल प्राकृतिक रूप से बहुत खूबसूरत है। ऐसे में एक फिल्म मेकिंग और फिल्म निर्माता के नजरिए से प्रदेश में ऐसी कौन-कौन सी जगहें हैं, जहां शूटिंग की जा सकती हैं? साथ ही हिमाचली कलाकारों को लेकर क्या संभावनाएं दिखती हैं?
यदि शूटिंग लोकेशन के नजरिए से बात करें बहुत संभावनाएं हैं, आजकल जितने भी शूट हो रहे हैं उनमें से ज्यादातर हिमाचल में ही हो रहे हैं। आर्थिक रूप से देखा जाए तो राज्य सरकार जितने ज्यादा फिल्ममेकरों को आमंत्रित करती उतना ही लाभ होता। क्योंकि जब एक फिल्म बनती है तो उसका अप्रत्‍यक्ष रूप से सभी क्षेत्रों फायदा मिलता है। जिसे हर कोई नहीं देख पाता है। जब एक फिल्म बनती है तो तकरीबन 40 से 50 से लोग बाहर से आतें हैं। बाकी के वहां खाना बनाने वाले लोकल रहेंगे, ट्रांसपोर्ट और गाडि़यां लोकल रहेंगी, लोकल दुकानों से सामान खरीदा जाएगा। तो जिस भी क्षेत्र में आपकी शूटिंग होती है, उस जगह पर आर्थिक स्थिति पनपती है। वहां के लोगों को रोजगार मिलता है। और दूसरा जब आर्टिस्ट की जरूरत होती है तो ये बड़े कलाकार तो मुंबई चले जाएंगे लेकिन, जब छोटे कलाकार की आवश्यकता होती है तब ये कोशिश करते हैं कि लोकल आर्टिस्ट को लिया जाए, जो कि बजट में पड़ जाते हैं। उनके आने-जाने का खर्चा बच जाता है। और इन सबके बावजूद जब फिल्म रिलीज होती है, जहां पर आप शूटिंग करते हैं उस जगह पर टूरिज्म भी बढ़ता है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं, जब हम “साँझ” की शूटिंग शंगढ़ में कर रहे थे बहुत ही कम लोग इस जगह के बारे में जानते थे। उस समय वहां पर एक फॉरेस्ट का रेस्ट हाउस था जिसमें दो कमरे थे। इसके अलावा वहां पर कुछ नहीं था। आज “साँझ” को रिलीज हुई 4 साल हो गए हैं। आज वहां पर 12 होम स्टे खुल चुके हैं और दो होटल बन चुकें हैं। “साँझ” ने पूरे शंगढ़ को बदल दिया है। इसके अलावा दो और तीन कैपिंग साइट बन चुकी है वहां पर।

कुछ और जगहों के बारे में बताएं, जिन्हें आपके हिसाब से अभी तक ढूँढा नहीं गया है और जहां पर बहुत कुछ किया जा सकता है?
ऐसी तो बहुत सी जगहें हैं जिन्हें अभी तक खोजा नहीं जा सका है। क्योंकि जितनी भी फिल्में शूट होती हैं वे ज्यादातर शिमला और मनाली में होती हैं। तो ये क्या करते हैं कि जितनी भी हाइवे के पास की लोकेशन हैं, जहां आसपास होटल होते हैं या फिर टाउन के आसपास की तो वहां पर शूटिंग करते हैं। जैसे धर्मशाला में हो गया लेकिन, धर्मशाला में इतना नहीं होता है। फिर डलहौजी में हो गया, जैसे “कुछ-कुछ होता है” में किया गया था लेकिन, उसको बताया नहीं गया था। यहां तक कि उसका कुछ और नाम रख दिया गया था। ये मुख्य लोकेशन हैं जहां शूट होता है। लेकिन इन जगह की अंदर की लोकेशन की बात करें तो वहां पर ऐसी बहुत-सी जगहें हैं, जहां पाए शूटिंग की जा सकती है। लेकिन, वहां पर रहने की कोई व्यवस्था नहीं है और वहां की सरकार ऐसी जगह पर स्टे करने की मंजूरी नहीं देती है। अगर आप एक दिन का स्टे लेते हैं आपको वहां पर बुकिंग करनी होगी, वो भी किसी सरकारी कर्मचारी के नाम पर। तब हमने सरकार के सामने ये प्रस्ताव भी रखता था कि इन जगहों पर जितने भी पीडब्ल्यूडी के, फॉरेस्ट विभाग के रेस्ट हाउस हैं उनमें शूटिंग के लिए गई टीम को ठहरने की अनुमति दें। जैसे किसी फिल्म की शूटिंग 10 दिन की है तो उसे 10 दिन तक स्टे करने की मंजूरी मिले। उसके लिए हर रोज बुकिंग न करनी पड़े। क्योंकि इन्हें लगता है इनके कोई मंत्री आ गए तो वे कहां रुकेंगे। इसलिए ये गेस्ट हाउस रूम के लिए रिजर्वेशन नहीं देते हैं। तो इन गेस्ट हाउस में मंजूरी मिलनी चाहिए वो भी उचित रेट में।

ऐसे कौन-कौन से जिले हैं जिनमें आपने ऐसी जगहें चिन्हित की है, जो कि बहुत खूबसूरत हैं और उन जगहों पर शूटिंग की जा सकती है?
देखिए, फिल्मों में लोकेशन की जरूरत खूबसूरती के हिसाब से नहीं होती है। खूबसूरती के हिसाब से लोकेशन की जरूरत म्यूजिक वीडियो या फिल्म के गानों में होती है। फिल्मों में लोकेशन की जरूरत उस फिल्म की स्क्रिप्ट के अनुसार होती है। फिर भी अगर लोकेशन की खूबसूरती के मुताबिक बात करें तो कुल्लू है, मंडी है, शिमला है, सिरमौर है, किन्नौर है, लाहौल-स्पीति है और चंबा जिला है। तो ये सभी मुख्य जिले हैं, जहां खूबसूरत वादियां हैं। इसके अलावा हम बात करें विरासत के हिसाब से तो कांगड़ा में किले हैं। फिर कांगड़ा में ही परागपुर का क्षेत्र आता है। फिर सुजानपुर का किला हो गया। तो इस तरह की काफी विरासतें वाली जगह आती हैं। फिर उधर सोलन जिले में आरती का किला है वो भी बहुत अच्छा है। किस तरह के लोकेशन की जरूरत होती है, ये कहानी पर निर्भर करती है।

बतौर फिल्म निर्माता आप हिमाचल से आने वाले फिल्म निर्माताओं, कलाकारों और संगीतकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
देखिए, इनके लिए हमेशा से मेरी ओर से एक ही संदेश रहा है कि अगर आपको आगे बढ़ना है तो काम करना होगा और काम करना है तो फिर आप उसकी कहीं से भी शुरुआत कीजिए। साथ मिलकर काम कीजिए फिर चाहे आपको फ्री ही काम करना पड़े कीजिए। क्योंकि बहुत सारे लोगों की यही चिंता रहती है कि जैसे किसी को एक्टिंग में जाना है तो उन्हें लगता है कि उन्हें जाते ही उनके काम के लिए पैसे मिलने लगेंगे। उन लोगों को मैं बहुत छोटी-सी बात कहना चाहूंगा कि आप अपने 15 साल ग्रेजुएशन को पूरा करने में लगा देते हैं और 15 साल लगाने के बाद जिस जॉब के लिए हम तैयारी करते हैं उसके लिए पढ़ाई करते हैं। जब हम उस जॉब को और पढ़ाई को छोड़कर कर एक्टिंग में आते हैं वो भी बिना सीखे हुए तो उसके लिए आपको समय देना ही होगा। फिर चाहे उसके लिए आपको बिना पैसों के काम करना पड़े। क्योंकि लर्निंग बहुत जरूरी है। और जब एक बार लर्निंग अच्छी हो गई तो आप आगे बढ़ेंगे ही।

जैसा कि यह संगठन जो अभी तक नहीं बना है, जिसके बारे में आप बता रहे हैं। तो क्या आप जैसे फिल्म निर्माताओं ने कभी यह सोचा कि एक स्वायत्तशासी कमेटी या संगठन बनाया जाए। क्या आप कभी इस ओर विचार करते हैं?
देखिए, कोई स्वायत्तशासी कमेटी बनाने का कोई फायदा नहीं है। क्योंकि आप एक संगठन तो बना लोगे, उसमें आप एक एनजीओ और एक सोसाइटी शुरू करोगे। लेकिन, उससे क्या लाभ रहेगा क्योंकि फिल्म से जुड़े सभी अधिकार सरकार के पास होते हैं, जिसे सरकार ही देती है। आप ज्यादा-से-ज्यादा स्वायत्तशासी संगठन बनाकर आर्टिस्ट के साथ मिलकर आवाज उठा लेंगे या फिर सरकार के साथ मिलकर मुद्दे पर चर्चा कर सकेंगे।

मैं आपके इस सवाल को ऐसे देख रहा हूं कि जैसे जब टैक्सी वालों की यूनियन हो सकती है और वे अपनी मनमानी के रेट ले रहे होते हैं। ऐसे में उनके रेट फिक्स किए जाते हैं। तब वहां पर सरकार के नियामक काम आते हैं। लेकिन जब उनकी यूनियन ही न हो तो क्या आप इस नजरिए पर विचार करते हैं?
देखिए, जब हम बात करते हैं टैक्सी वालों की यूनियन की तो सरकार की ओर उनके लिए कुछ चीजें पहले से ही निर्धारित होती हैं। उन्हें मंजूरी दी जाती है, उनको रूट दिए जाते हैं और तो उनको लाइसेंस भी दिए जाते हैं। मगर, हमें ऐसा कुछ भी नहीं दिया जाता है। जब हमें कोई मान्यता ही नहीं दी जाती है। हमें मान्यता सिर्फ मुंबई में ही दी जाती है। जहां पर हमें प्रत्यायन दिया जाता है उसी के अंतर्गत् हम काम करते हैं। हां, अगर राज्य सरकार की ओर से कोई पॉलिसी ड्राफ्ट हो जाती है तो पॉलिसी के अंतर्गत् एक एसोसिएशन बनाकर राइट्स पर सवाल कर सकती है। फिलहाल, सबसे बड़ी बात ये है कि सरकार को इस इंडस्ट्री को पहचानना होगा। जब तक सरकार इसे एक जॉब क्रिएटर के रूप में नहीं पहचानती है तब तक एसोसिएशन बनाने का कोई फायदा नहीं है। फिर वे छोटी-छोटी चीजों को लेकर चलता है। रही बात फिल्म एसोसिएशन बनाने की तो सोचिए हमारे पास कितने ही फिल्म मेकर हैं और जो काम कर रहे हैं वे मुंबई में रहकर काम करते हैं।

चलिए, अजय जी आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा।
to know more about Ajay Saklani pls. visit his official website: http://www.ajaysaklani.com/

एसएस डोगरा का संक्षिप्त परिचय

शॉर्ट फिल्म लाइब्रेरी की शूटिंग के दौरान बाल कलाकार को दृश्य के बारे में समझाते एसएस डोगरा।

(लेखक, पत्रकार और मीडिया शिक्षाविद्। विश्वविख्यात हिंदी मासिक पत्रिका हिमालिनी-नेपाल के लिए दिल्ली से ब्यूरो प्रमुख। देशभर में 250 से अधिक मीडिया कार्यशालाओं के आयोजन के अलावा मीडिया एजुकेशन विषय पर दो पुस्तकें भी लिख चुके हैं। वर्तमान में वे एफआईएमटी कॉलेज, आईपी यूनिवर्सिटी दिल्ली में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर-पत्रकारिता एवं जन-संचार विभाग में कार्यरत हैं।)

7वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल शिमला के लिए फिल्में आमंत्रित

 

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