काबुलः भारत जरा सक्रियता दिखाए

1054
photo source: social media

अफगानिस्तान के मामले में भारत सरकार के रवैए में इधर थोड़ी जागृति आई है, यह प्रसन्नता की बात है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जर्मन चांसलर एंजला मर्केल और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन से बात की। संयुक्त राष्ट्रसंघ और अंतरराष्ट्रीय मानव आयोग में भी हमारे प्रतिनिधियों ने भारत का दृष्टिकोण स्पष्ट किया। हमारे प्रधानमंत्री और प्रतिनिधियों ने अपनी बातचीत और भाषणों में कहीं भी तालिबान का नाम तक नहीं लिया। उन्होंने काबुल में किसी की भर्त्सना नहीं की लेकिन उन्होंने बड़े पते की बात बार-बार दोहराई। उन्होंने कहा कि हम काबुल की सरकार से अपेक्षा करते हैं कि वह आतंकवाद को बिल्कुल भी प्रश्रय नहीं देगी। वह अफगानिस्तान की जमीन को किसी भी मुल्क के खिलाफ इस्तेमाल नहीं होने देगी और वहां ऐसी सरकार बनेगी कि जो सबको मिलाकर चले। ये जो बातें हमारी तरफ से कही गई हैं, बिल्कुल ठीक हैं। भारत ने चीन की तरह अमेरिका के मत्थे अधकचरी वापसी और अराजकता का ठीकरा नहीं फोड़ा है और न ही उसने पाकिस्तान पर कोई हमला किया है, हालांकि पाकिस्तान तालिबान को पहले भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता रहा है।

इस समय भारत के लिए सही नीति यही है कि उसका रवैया रचनात्मक रहे और सावधानीपूर्ण रहे। याने वे देखे कि तालिबान जो कह रहे हैं, उसे वे कितना कार्यरूप दे रहे हैं ? हमें सिर्फ यही नहीं देखना है कि कश्मीर और अफगानिस्तान में हमारे निर्माण-कार्यों के बारे में उनका रवैया क्या है ? वह तो ठीक ही है। वे हमारे नागरिकों को और गैर-मुस्लिम अफगानों को भी कोई नुकसान नहीं पहुँचा रहे हैं लेकिन यह काफी नहीं है। हमें देखना है कि काबुल की नई सरकार का रवैया अफगान जनता के प्रति क्या है ? यदि उसका रवैया वही 25 साल पुराना रहता है तो हम न सिर्फ उनको मान्यता न दें बल्कि अफगान जनता के पक्ष में विश्वव्यापी अभियान भी चलाएं। इस वक्त बेहतर होगा कि हमारे कूटनीतिज्ञ काबुल में सक्रिय सभी पक्षों के नेताओं से सीधा संवाद करें और वहां एक मिली-जुली शासन-व्यवस्था स्थापित करवाने की कोशिश करें। यदि अमेरिकन गुप्तचर एजेंसी सीआई के प्रमुख विलियम बर्न्स काबुल जाकर तालिबान नेताओं से बात कर रहे हैं तो हम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे रहें ? यदि सरकार गहरे असमंजस में है तो कुछ प्रमुख भारतीय भी गैर-सरकारी पहल कर सकते हैं। तालिबान ने अपनी अंतरिम मंत्रिपरिषद की घोषणा कर दी है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि उमसें कुछ भारतप्रेमी अफगान भी शामिल हो सकें। काबुल की नई सरकार को देश चलाने के लिए इस समय पैसे की बहुत जरुरत होगी। मार्गदर्शन की भी। इन दोनों कामों में भारत सरकार उसकी जमकर मदद कर सकती है लेकिन उसे अपने दिमाग से डर निकालना होगा। अफगानिस्तान की आम जनता में भारत के प्रति बड़ा सम्मान है। भारत के प्रति उसके दिल में वैसी शिकायतें नहीं हैं, जैसी पाकिस्तान के लिए हैं। लेकिन देखना यह है कि भारत जरुरी सक्रियता निभाता है या नहीं ?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं। वे अफगान नेताओं के साथ सतत संपर्क में हैं।)

काबुल में भारत की भूमिका शून्य क्यों?

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here