कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कहीं भाजपा को भारी न पड़ जाय

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नई दिल्ली/ प्रहलाद वर्मा। जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उन राज्यों में कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भाजपा पर भारी पड़ने के पूरे आसार हैं। कुछ राज्यों में तो अपनी बात पार्टी की किसी भी मंच पर नहीं सुने जाने के विरोध में समर्पित कार्यकर्ताओं ने इस्तीफा देना शुरू कर दिया है। कुछ तो दूसरी पार्टी में जा चुके हैं। कार्यकर्ताओं की नाराजगी का असर हिमाचल प्रदेश में बीते महीनों में हुए तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा की करारी हार हो चुकी है। यही नहीं हिमाचल के सोलन जिला मुख्यालय के नगर निगम चुनाव में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है जबकि इन चुनावों को मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर अपनी प्रतिष्ठा से जोड़े हुए थे। हिमाचल के ये उपचुनाव के नतीजे भाजपा को एक तरह से चेतावनी है कि वह कार्यकर्ताओं की उपेक्षा बंद कर उनकी बात सुने वरना हिमाचल भाजपा के हाथ से पिसला।
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का मुख्यालय जहां कार्यकर्ताओं से हमेशा गुलजार रहा करता था अब नई व्यवस्था के तहत सन्नाटा पसरा रहता है। यह स्थिति तब से है जबसे सुनील बंसल भाजपा का संगठन प्रमुख बनकर आए हैं। बंसल ने अपनें कार्यक्रम के शरुआती दौर में जब पार्टी प्रदेश मुख्यालय में कार्यकर्ताओं की भीड़ देखी तो उन्हें नागवार गुज़रा। उन्होने कार्यालय में आने से कार्यकर्ताओं को आने से यह कहकर रोक दिया कि वे अपने क्षेत्र में ही रहकर अपना काम करें। पार्टी कार्यालय में बिना बुलाये आने की जरूरत नहीं है। उन्होने सिर्फ कार्यकर्ताओं को ही नहीं रोका बल्कि प्रदेश के संगठन पदाधिकारियों को रोजाना कार्यालय आने पर रोक लगा दी है।
यहां तक कि पार्टी प्रवक्ता भी रोज कार्यालय नहीं आ सकते। उनको काम बांट दिया गया है। जब उनका निर्धारित दिन आता है तभी वे कार्यालय में दिखाई देते हैं और ब्रीफिन्ग के बाद कार्यालय से चले जाते हैं। यहां तक कि भाजपा कार्यालय का कोई कर्मचारी किसी बाहरी व्यक्ति से बात नहीं कर सकता। मीडियाकर्मी से मिलना तो वह सोच भी नहीं सकता।
ऐसे में वह दिन याद आता है जब भाजपा के प्रवक्ता लालजी टंडन हुआ करते थे। तब शाम चार बजे नियमित प्रेस ब्रीफिंग हुआ करती थी। इसके अलावा कोई भी मीडियाकर्मी कभी भी टंडन जी या किसी अन्य पदाधिकारी और कर्मचारी से मिल सकता था। खुलकर बात कर सकता था। कर्मचारी भी विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय दे सकता था। तब न कोई भय था और न ही किसी तरह की कार्रवाई का डर। अब कर्मचारी उस वक्त को याद कर किलसते हैं।
उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों की राजनीति में काफी अंतर है। अधिकांश राज्यों जरूरत के अनुसार नेता, कार्यकर्ता पार्टी कार्यालय जाते हैं। ऐसा प्रायः संपन्न राज्यों में होता है। वहां कार्यकर्ताओं और नेताओं के अपना व्यवसाय आदि होते हैं जिन्हें वे संभालते हैं। जरूरत पड़ने या बुलावे पर पार्टी कार्यालय चले जाते हैं लेकिन यहां उत्तर प्रदेश, हिमाचल और उत्तराखंड की राजनीति का तरीका ही काफी अलग है। इन राज्यों में राजधानी से दूरदराज की जनता की राजनीतिक दल खासतौर से सत्ताधारी दल के नेता से काफी अपेक्षा होती है। वह अपना काम कार्यकर्ता या नेता को सौंप कर उम्मीद करती है कि उसका काम अब हो जाएगा। कार्यकर्ता क्षेत्र में कई लोगों के कार्य इकट्ठा कर राजधानी चला आता है। वह पार्टी कार्यालय में प्रदेश नेतृत्व, विधायक, मंत्री से मिलकर जनता के कार्य करा लेता था। इसके लिए भले ही एक-दो दिन राजधानी में रुकना पड़े। वह अपने क्षेत्र के विधायक के यहां रुक जाता था। अब नई व्यवस्था में कुछ क्षण के वह दिखा तो कार्रवाई तय है, मानकर कार्यालय जाता ही नहीं। इधर सख्ती के कारण विधानसभा में बगैर पास जा नहीं सकता। पास भी बहुत मुश्किल से बनता है।
पाबंदियों और तमाम मुश्किलों को देखते हुए आम कार्यकर्ता यहां कार्यालय आना छोड़ दिया है। उधर वह आम लोगों से कटना भी शुरू कर दिया है कि काम बताने पर वह मजबूरियों के च चलते कैसे काम करा पाएगा। इसका चुनाव के समय पड़ना तय माना जा रहा है। यदि ऐसा होता है तो इसका जिम्मेदार कौन होगा।
हिमाचल प्रदेश में तो कार्यकर्ताओं यहां तक कि प्रदेश कार्यसमिति के पदाधिकारियों तक की नहीं सुनी जा रही है। कुछ नेता तो अपनी निजी हित के कार्यकर्ताओं को पहले तो पार्टी से निलंबित कराया। बाद में उसे ऐसा परेशान किया कि उस कार्यकर्ता को पार्टी ही छोड़ना पड़।
हिमाचल में कार्यकर्ताओं की शिकायत अपने कुछ वरिष्ठ नेताओं के भ्रष्टाचार में लिप्त रहने की है। इसकी शिकायत जब कुछ लोगों ने पार्टी के विभिन्न मंचों पर की तो उनकी सुनी ही नहीं गई। इससे आजिज आकर प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य पवन गुप्ता अपने पद से इस्तीफा दे चुके हैं। वे अब पार्टी के साधारण सदस्य ही रह गए हैं। एक दूसरे पदाधिकारी कुशल जेठी को एक प्रदेश स्तर के नेता, जो मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष रह चुके हैं, ने अपने निजी हित के लिए पहले तो पार्टी से निलंबित कराया। जेठी के लाख प्रयास के बावजूद उस नेता ने दोबारा पार्टी का मंडल सदस्य तक नहीं बनने दिया हालांकि जेठी हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के खास माने जाते थे। धूमल को उस नेता ने कुछ ऐसा भरा कि वे भी जेठी कुछ मदद नहीं कर पाए। जेठी ने परेशान होकर कान्ग्रेस का दामन थाम लिया। कान्ग्रेस ने भी फौरन उन्हें प्रदेश प्रवक्ता नियुक्त कर दिया। कुछ इसी तरह की उपेक्षा के चलते भाजपा के समर्पित पदाधिकारी विनीत गोयल सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अन्य अनषान्गिक संगठन में सेवा देने चले गए। पूरे हिमाचल प्रदेश में कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की उपेक्षा का यही आलम है। इसका खामियाजा पार्टी को कहीं भुगतना न पड़ जाए।
उत्तराखंड में भी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की यही हाल है। हालांकि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी पूरे प्रदेश में घूमकर स्थिति संभालने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वहां तो स्थिति और खराब है। वहां विधायक और मंत्री तक कि नहीं सुनी जा रही है। एक वरिष्ठ मंत्री और विधायक का इस्तीफा बहुत बयां कर रहे हैं।
भाजपा नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं की नाराजगी और उनकी शिकायतों को समय रहते दूर नहीं किया तो चुनाव में उसका नुकसान होना तय माना जा रहा है।

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