वन निवासियों के अधिकारों की जानकारी दी

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रिकांगपिओ, 7 अप्रैल। अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकार अधिनियम-2006) के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए आज जिला प्रशासन किन्नौर द्वारा हिमाचल प्रदेश लोक प्रशासन संस्थान (हिप्पा) के सहयोग से दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसमें वन अधिकार अधिनियम-2006 के बारे में जानकारी दी गई।
उपायुक्त किन्नौर आबिद हुसैन सादिक ने कार्यशाला का आरंभ करते हुए बताया कि कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य वन अधिकार अधिनियम-2006 के तहत गठित जिला स्तरीय व जिले के तीनों उपमण्डल की उपमण्डल स्तरीय समीतियों के सदस्यों व इस कार्य से जुड़े विभागों के अधिकारियों को वन अधिकार अधिनियम-2006 की बारीकियों के बारे में जागरूक करना है। उन्होंने कहा कि इसी उद्देश्य के लिए हिमाचल प्रदेश लोक प्रशासन संस्थान शिमला के विशेषज्ञों के अलावा एफ.आर.ए से जुड़े हिमाचल प्रदेश सरकार में उपसचिव राजस्व सुदेश मोगटा को स्त्रोत पर्सन के रूप में आमंत्रित किया गया है जो अधिनियम की बारीकियों के बारे में जागरूक करेंगे।
उपसचिव राजस्व सुदेश मोगटा ने इस अवसर पर बताया कि वन अधिकार अधिनियम-2006 अनुसूचित जनजाति व अन्य परंपरागत वन निवासियों को उनके वन पर आधारित अधिकारों को प्रदान करता है जिसे भारत की संसद द्वारा वर्ष 2006 में पारित किया गया है। यह कानून वन व वन भूमि पर निर्भर समुदायों के मौजूदा वन अधिकारों को कानूनी मान्यता देता है और रिकॉर्ड व दस्तावेजीकरण करता है। यह कानून लोगों को वन भूमि पर व्यक्तिगत और सामूहिक वन अधिकारों के साथ-साथ वनों के रखरखाव और वन भूमि पर स्थानीय विकास का भी अधिकार देता है।
इस कानून की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह अधिकारों की मान्यता की पूर्ण निर्णय प्रक्रिया में हरकदम पर लोगों और उनके स्थानीय प्रतिनिधियों की भागीदारी सुनिश्चित करता है। उन्होंने कहा कि इस अधिनियम से वनों पर निर्भर सभी समुदाय और परिवारों में वन भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व और सुरक्षा की भावना उत्पन्न हुई है। इस कानून के माध्यम से अनुसूचित जातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के अधिकारों को पहली बार कानूनी मान्यता प्राप्त हुई है जिससे उनकी आजीविका की सुरक्षा हो रही है साथ ही साथ समुदायों को वनों की सुरक्षा और संरक्षण करने में कानूनी तौर पर सशक्त बना रहा है।
हिप्पा के पाठ्यक्रम निदेशक डॉ. प्रवेश कुमार ने बताया कि वन अधिकार अधिनियम-2006 प्रथम जनवरी 2008 में प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों पर लागू किया गया। 6 सितंबर 2012 में इस कानून में संशोधन कर इसे पूरे प्रदेश भर में लागू किया गया है। वन अधिकार कानून नियम दो प्रकार के समुदाय के लिए है जिसमें पहले स्थान पर वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजाति आती है। अनुसूचित जनजाति के सदस्य या समुदाय जो 13 दिसंबर 2005 से पहले से प्राथमिक रूप से वन भूमि पर निवास करते हों (भीतर या बाहर) और अपनी आजीविका की वास्तविक जरूरतों के लिए वन पर निर्भर हैं। हिमाचल प्रदेश के अनुसूचित जनजाति क्षेत्र किन्नौर, लाहौल-स्पीति और चंबा के भरमौर-पांगी के जनजातीय समुदाय जिनके अधिकार वन व राजस्व बंदोबस्त में दर्ज हैं और जनजातीय घुमंतू पशुपालक जैसे गद्दी और गुर्जर समुदाय इसमें शामिल हैं।
जबकि दूसरे स्थान पर अन्य परंपरागत वन निवासी आते हैं। परंपरागत वन निवासियों में अनुसूचित जनजाति को छोड़कर अन्य सभी श्रेणी के समुदाय या सदस्य जो 13 दिसंबर 2005 से पूर्व कम से कम 3 पीढि़यों (75 साल) से प्राथमिक रूप से वन भूमि पर निवास करते आ रहे हैं और अपनी आजीविका की वास्तविक जरूरत के लिए वन या वन भूमि पर निर्भर हैं। हिमाचल प्रदेश के गैर जनजातीय समुदाय जिनके वन अधिकार राजस्व और वन बंदोबस्त में दर्ज हैं वे इस श्रेणी में आते हैं। उन्होंने इस अवसर पर उपस्थित सदस्यों को वन अधिकार अधिनियम के तहत विभिन्न प्रकार के दस्तावेज तैयार करने संबंधी जानकारी पी.पी.टी के माध्यम से दी।
कार्यशाला में वनमण्डलाधिकारी किन्नौर रजनोल्ड रॉयस्टन, अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी पूह अश्वनी कुमार, उपमण्डलाधिकारी कल्पा स्वाति डोगरा, सहायक आयुक्त मुनीष कुमार शर्मा, आई.टी.डी.पी की परियोजना अधिकारी बिमला वर्मा, जिला स्तरीय समिति के सरकारी तथा गैर-सरकारी सदस्य, उपमण्डल स्तर के सरकारी तथा गैर-सरकारी सदस्य, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, खण्ड विकास अधिकारी व अन्य उपस्थित थे।

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