चुनावी बकवास: राजनीति में परिवारवाद को मिले 100 फीसदी आरक्षण

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  • बेटा या भाई फ्रार्डी हो या रेपिस्ट, नशे का सौदागर हो, गुंडा हो मिले वरीयता
  • बहू, प्रेमिका और थर्ड रिलेशन को मिले 50 प्रतिशत आरक्षण

फरखू नेता इन दिनों अपने बहू और प्रेमिका दोनों के लिए टिकट चाहते हैं। एक प्रेमिका पहले ही स्टेबिलिश्ड हो चुकी है। आखिर इतने वर्ष जनता की सेवा की है लेकिन कमबख्त जनता बहुत गंदी होती है और उससे भी अधिक गंदे होते हैं विरोधी। भई इतना अधिकार तो बनता ही है कि किसी को टिकट दिला दें। आखिर इतनी अथाह दौलत किसलिए कमाई है? उधर, एक और नौटंकीबाज को अपने बेटे और बेटी को राजनीतिक विरासत सौंपनी है। हक भी बनता है। एक बेटा शराब बेचता है और दूसरा नशे के खिलाफ आंदोलन चलाता है। दोनों ही बड़े ही बेटे सोशल हैं। इसके बावजूद नेताजी अपने एक ही बेटे के लिए टिकट मांग रहे हैं। यानी 100 फीसदी आरक्षण मिलना भी चाहिए, क्या बुराई है। उधर, एक अन्य नेता पुत्र राजनीतिक इंट्री की चाहत लिए हैं। पिता ने सड़क से उठकर सत्ता तक धमक बनाई। क्या इसलिए कि उसका बेटा टिकट के लिए तरसे? क्या हुआ, यदि थोड़ा सा गरीबों का पैसा खा गया? कौन गरीबों का हिस्सा नहीं खाता? नहीं खाते तो गरीब कैसे कहलाते, गरीब भी सेठ हो जाते? एक नेताजी की बेटी ने दाखिलों के नाम पर ही रकम भी हड़पी और दाखिले भी नहीं करवाए। ऐसी सुपात्र पुत्री राजनीति में सफलता की गारंटी है। उसे वरीयता मिलनी ही चाहिए।
एक पिता-पुत्र हमें महाभारत काल में ले जाते हैं। इतना आज्ञाकारी और संस्कारी पुत्र भला कहां मिलता है कि पिता जहां कहें, वहीं चल दें। इस संस्कारी बेटे को तो 100 प्रतिशत आरक्षण चाहिए। नेता भरे बुढ़ापे में मरे या भरी जवानी में, पहला हक उसकी पत्नी का होता है, भले ही वो अनपढ़ हो। उसे टिकट देना जीत की गारंटी होती है और उसे आसानी से ठगा भी जा सकता है। इसलिए राजनीति में ऐसी दया की पात्र महिला को आरक्षण मिलना ही चाहिए।
मतलब यह है कि सीट बदलना, वादे कर मुकरना, बीबी, बच्चों, भाई और प्रेमिका को टिकट देना नैतिकता के आधार पर बिल्कुल सही है और इसे कानूनी मान्यता दी जानी चाहिए। दारूबाज, गुंडा, फ्राड करने वाला या करनी वाली, रेपिस्ट, या अवैध कार्यों से धन कमाने में पारंगत नेता पुत्रों को राजनीति में वरीयता मिलनी ही चाहिए। रही बात बरसों से पार्टी का झंडा-डंडा उठाने वालों की, उनकी तो किस्मत ही ऐसी है, वरना दरी क्यों बिछाते? भला भवन बनाने वाले मजदूर भी कभी उसमें रहते हैं क्या?
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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