दल-दल ने आंदोलनकारी ओमी को ओमगोपाल नेता बना दिया

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  • राज्य आंदोलन से जन्में नेता ओमगोपाल का नैतिक पतन दुखदाई
  • तुम भी लूटो ओमगोपाल, उम्मीद यही है कि हमें मारो तो छाया में गिरा देना!

उत्तराखंड राज्य आंदोलन ने राज्य को कुछ गिने-चुने नेता दिये। मसलन दिवाकर भट्ट, काशी सिंह ऐरी, विनोद चमोली, रवींद्र जुगरान, ओमगोपाल रावत और दो-चार और। राज्य गठन के बाद जब इन नेताओं को एकजुट होकर राष्ट्रीय पार्टियों का एक मजबूत विकल्प बनना था तो इनमें से अधिकांश सत्ता के लालच में आ गये और जल्द ही मलाई खाने के चक्कर में आ गये। यानी राष्ट्रीय दलों की गोदी में जा बैठे। नतीजा, पहाड़ के लोगों के लिए देहरादून आज भी उतना ही दूर है जितना लखनऊ था।
राज्य गठन के बाद जिन आंदोलनकारी नेताओं का सबसे अधिक नैतिक पतन हुआ, उनमें दिवाकर भट्ट और ओमगोपाल रावत भी शामिल हैं। ओमगोपाल को पूरे राज्य के आंदोलनकारी ओमी कहते थे यानी इतना प्यारा था वो, लेकिन सत्ता के लालच में वो इतना अधिक बदरंग हो गया कि उसे ओमी कहने से कहीं अच्छा ओमगोपाल शब्द लग रहा है। यूकेडी, भाजपा, निर्दलीय, भाजपा और अब कांग्रेस। यानी हर पांच साल में दल के दलदल में धंसता रहा ओमी और दलदल में जो नजर आ रहा है वो ओमगोपाल है। ओमगोपाल रावत अब कांग्रेस में हैं।
ओमगोपाल को मैं यूं भी समझ सकता हूं। उसके अनुसार जब एक वोट के लिए जनता पर 500 से एक हजार खर्च करने पड़ते हैं तो फिर चुनाव जीतने में तीन से पांच करोड़ खर्च हो जाते हैं। जीत मिली तो ठीक, हार गये तो भरपाई करनी मुश्किल है। ऐसे में जब कोई विधायक बन जाता है तो वह पहले दिन से ही चुनाव में खर्च की गयी रकम की वसूली में जुट जाता है। इस वसूली में उसे डेढ़ से दो साल लग जाते हैं और फिर अगले डेढ़ साल वह नये चुनाव के लिए भी जुटाता है। इसके अलावा घर खर्च, भविष्य की चिन्ता और राजनीतिक अस्थिरता से भी जूझना पड़ता है। यानी एक साधारण विधायक के लिए पांच साल का कार्यकाल भी छोटा ही होता है। उसकी अपनी ही जरूरतों की पूर्ति नहीं होती तो जनता का काम करेगा क्या?
सच यही है वोट और नोट की राजनीति जिसने अपने प्यारे ओमी को ओमगोपाल बना दिया। भविष्य के लिए शुभकामनाएं ओमगोपाल रावत। जब दूसरे नेता जिन्होंने उत्तराखंड राज्य के लिए कोई त्याग, बलिदान नहीं किया फिर भी हमारे पहाड़ को लूट रहे हैं तो तुम क्या बुरे हो। हो सके तो खूब लूटना। हमें मारोगे भी तो छाया में तो गिराओगे, बस, यही उम्मीद बाकी है।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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