मुंह नोचोगे तो खून ही निकलेगा

617
  • हिमालय के लिए नीति ही नहीं बनी, बना रहे शीशे के महल
  • नदी-नालों पर क्यों हो रही है बसावट, अधिकांश मौतें मानवीय लापरवाही से

मानसून की विदाई के बाद दो दिन के पोस्ट मानसून ने उत्तराखंड की कमर तोड़ दी। 58 से भी अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। कई लापता हैं। यह बहुत दु:खद है। जानकारी के अनुसार 100 करोड़ के आसपास सरकारी नुकसान हुआ। सीएम धामी सात हजार करोड़ बता रहे हैं। हम आपदा में अवसर तलाश ही लेते हैं। कोई नई बात नहीं है, लेकिन विडम्बना यह है कि हम अपना चेहरा खुद ही नोंच रहे हैं। चेहरा नोंचने तो खून आएगा ही। इतनी सी बात हम पढ़े-लिखे प्रदेश के लोग समझ ही नहीं रहे। हम भौतिक सुख की चाह में दूर गांव छोड़ कर नदी किनारे आ गये। उत्तरी ढलानों की बजाए घाटियों में आ गये। नदी का एरिया घेरोगे तो नदी जान ही लेगी। 2013 की केदारनाथ आपदा से भी हमने कोई सबक नहीं लिया। पिछले दो दिन में होने वाली अधिकांश मौतों के लिए प्रकृति से अधिक हम खुद जिम्मेदार हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले दो दिन में घटी घटनाएं कोई नई बात नहीं है। हिमालयी आर्काइब और रॉक्स बताता है कि यहां के क्लाइमेट पर दक्षिणी पश्चिमी मानसून का प्रभाव रहा है। यहां की भू आकृतियां हैं, नदी नाले हैं या नदियों के किनारे गाद है। इसको टैरेसेस या सेडमेंट कहा जाता है। ये जियोलॉजिकल आर्काइब है। प्रकृति की यह घटना पहले भी हुई हैं और आगे भी होती रहेंगी। सवाल है कि बचाव कैसे हो? यूसैक के डायरेक्टर डा. एमपीएस बिष्ट के अनुसार सबसे पहले आपको आपदा की समझ होनी चाहिए। कारण समझ आना चाहिए और उसका समाधान है। पहला बारिश होती है तो उससे बचने के लिए घर बना दिया। तो बारिश से सुरक्षा मिल गयी। अब बारिश से बाढ़ आयी तो उससे बचने के लिए क्या हो? सीधी सी बात की फ्लड लेबल से दूर घर बनाएं। इसको हम नेगलेट कर देते हैं।
यूपी से अलग राज्य की अवधारणा के पीछे एक अहम कारण था भौगोलिक विषमता। हिमालय को समझने की जरूरत है। हमने न तो हिमालय को समझा और न विज्ञान को। हिमालय युवा पहाड़ है। कुछ ही फासले पर चट्टानों की प्रकृति बदल जाती है। बिना भूगर्भवीय जानकारी या सर्वे के विकास योजनाएं बन रही हैं। पहाड़ खोदे जा रहे हैं। जंगल काटे जा रहे हैं। भूमि बंजर हो रही है और अपने ही खेत में गड्ढे खोदने के लिए मनरेगा से काम मिल रहा है और मिट्टी ढलानों में बह रही है। नदी किनारे आवास बढ़ रहे हैं। नदियों की सीमा पर अतिक्रमण हो रहा है।
कुल मिलाकर हमारे राज्य में हिमालय ही मुख्य स्रोत है लेकिन हिमालय के लिए नीति ही नहीं है। जब तक हिमालय के लिए कारगर नीति नहीं बनती। जियालॉजिकल एस्पेक्ट को नहीं देखा जाएगा। आपदा के घर में शीशे के महल बनाए जाते रहेंगे तब तक प्रकृति हमको यूं ही रुलाती रहेगी।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

तो आज से सूचना आयोग हो जाएगा ठप?

 

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here