नाबालिग बाइक सवारों पर 25 हजार का जुर्माना कितना उचित?

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file photo source: social media
  • देहरादून में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली दुरस्त क्यों नहीं?
  • प्रदेश सरकार राजकोष से भरे नाबालिगों का जुर्माना

मेरी बेटी बालिग हो चुकी है लेकिन उसके पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है तो मैं उसे स्कूटी नहीं चलाने देता। हम विजय पार्क में रहते हैं। उसे धर्मपुर स्थित इंस्टीटयूट में जाना होता है। यदि मेरी बेटी विजय पार्क से धर्मपुर जाना चाहे तो उसे पहले कांवली रोड से प्रिंस चौक तक विक्रम में जाना पड़ता है। विक्रम आसानी से नहीं मिलते। प्रिंस चौक पर गारंटी नहीं कि धर्मपुर के लिए बस या विक्रम मिले। यानी बच्चे को दूर तक पैदल जाना पड़ता है और फिर उसे विक्रम मिलता है। यदि मैं उसे स्कूटी या कार से इंस्टीटयूट तक छोड़ने जाता हूं तो 15 मिनट लगते हैं लेकिन विक्रम या बस की प्रक्रिया में लगभग एक घंटा लगता है। यानी रोज के दो अतिरिक्त घंटे। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ये दो घंटे बच्चे के लिए कितने महंगे साबित होते हैं ये बात तीन बच्चों पर 25-25 हजार का जुर्माना लगाने वाली एआरटीओ रश्मि पंत और सीएम धामी को पता नहीं होगी।
कहने का अर्थ यह है कि आपने पिछले 21 साल में देहरादून की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुधारा ही नहीं। देहरादून का विस्तार तो हो गया और नेताओं ने सरकारी जमीनों पर कब्जा करवा कर करोड़ों कमा लिए लेकिन परिवहन सेवा लचर ही रही। देहरादून के अधिकांश इलाकों में आज भी जाने के लिए घंटो लगते हैं और सार्वजनिक परिवहन है ही नहीं।
एआरटीओ रश्मि पंत ने कल देहरादून के तीन स्कूली नाबालिग छात्रों का 25-25 हजार का चालान किया और गाड़ी जब्त कर ली। मैं इस कार्रवाई का विरोध नहीं कर रहा हूं लेकिन सवाल उठा रहा हूं कि इस स्थिति के लिए जितने इन बच्चों के अभिभावक जिम्मेदार हैं तो उनकी ही जिम्मेदार आरटीओ देहरादून और प्रदेश सरकार भी है।
देहरादून में इतनी लचर परिवहन प्रणाली है तो दोष महज वाहन चलाने वाले नाबालिग बच्चों को नहीं दिया जा सकता। देहरादून परिवहन विभाग भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा केंद्र है। एआरटीओ रश्मि पंत बताए कि जब लाइसेंस के लिए आनलाइन आवेदन होते हैं तो पोर्टल आठ बजे की बजाए कभी सुबह सात बजे या कभी दोपहर को क्यों खुलता है? यही सवाल जब मैंने पोर्टल के इंचार्ज इंजीनियर आयुष कुकरेती से पूछा तो वो मुकर गया कि आठ बजे ही पोर्टल खुलता है। आयुष कुकरेती की संपत्ति की जांच की जाए तो सच सामने आ जाएगा। यानी ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए भी एक आम आदमी को महीनों तक इंतजार करना पड़ता है। मजबूरी में वह दलालों के पास जाता है। आनलाइन लाइसेंसिंग प्रणाली के बावजूद दलाल कैसे हावी हैं?
मैं उन तीन बच्चों या उन सभी बच्चों को या उनके अभिभावको का बचाव नहीं कर रहा हूं। कानूनन यह गलत है लेकिन इसके लिए सरकार भी दोषमुक्त नहीं है। हमें देहरादून में एक अच्छी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की जरूरत है जो कि आज तक कभी सरकारों की प्राथमिकता में रही ही नहीं।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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