22 हजार रुपल्ली की नौकरी के लिए गंवा दी जान, ऐसी अमानवीय दौड़ पर लगे रोक

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  • अंग्रेजों के जमाने के नियम बदलो या अभ्यर्थियों की इको कार्डियोग्राफी करो

कल वन रक्षक पद के लिए बेरोजगार युवक युवतियों ने 25 किलोमीटर की दौड़ लगायी। ये दौड़ चार घंटे में पूरी करनी थी। ग्राउंड के 17 चक्कर काटने थे। नौकरी की चाह में ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट बेरोजगार भागे। खूब जोर लगाकर भागे। पता था कि एक बार 25 किलोमीटर दौड़ जाएं तो 22 हजार रुपये की पगार और जीवन भर का आराम मिल जाएगा। वरना प्राइवेट सेक्टर में तो 10 हजार रुपये के लिए भी दिन रात खटना होगा। यही सोचकर चमोली जिले के गोपेश्वर का सूरज प्रकाश भी दौड़ा। उसका दम घुट रहा होगा, हार्ट बीट बढ़ रही होगी लेकिन वो बेरोजगारी के उस टैग से बाहर निकलना चाहता होगा जो उसके माथे पर लगा था। पिता के संघर्ष, मां की उम्मीदें और भविष्य की सोच को लेकर वो दौड़ा। दौड़ पूरी भी कर ली, लेकिन नामुराद दिल का क्या? वो तो मंजिल मिलते ही धोखा दे गया।
सूरज प्रकाश की हार्ट बीट बढ़ी और दून अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया। बेरोजगारी से बचने के लिए उसकी दौड़ सांसों की डोर थमने से रुक गयी। अभी पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं आयी है। वरिष्ठ फिजिशियन डा. एन एस बिष्ट का कहना है कि सूरज प्रकाश को एचओसीएम हो सकता है यानी हार्ट की बीमारी रही होगी। इस बीमारी में हार्ट की नस में मांस बढ़ जाता है। उनका अनुमान है कि उसे पहले से ही यह बीमारी रही होगी। डा. बिष्ट मानते हैं कि मैराथन भी तो होती है। हालांकि उनका कहना है कि यदि लंबी दौड़ लगानी हो तो अभ्यर्थियों की इको कार्डियोग्राफी करा ली जानी चाहिए। आस्ट्रेलिया और अन्य यूरोपीय देशों में यह होता है।
सवाल यह है कि आखिर ये 25 किलोमीटर लंबी रेस किसलिए? शारीरिक परीक्षण तो पांच-दस किलोमीटर की रेस से भी हो जाता है। 1600 मीटर की दौड़ पूरी कर एक जवान सेना मे भर्ती हो जाता है। यही जवान करगिल के टाइगर हिल्स की चोटी पर दुश्मनों के साथ युद्ध लड़ता है तो सियाचिन के माइनस 42 के तापमान पर भी जीवित रह जाता है। क्या वनों को जीवन में एक बार 25 किलोमीटर दौड़ लगाने वाला वनरक्षक बचा लेगा? यदि ऐसा है तो जो हर साल प्रदेश के सैकड़ों हेक्टेयर वन भूमि जल जाती है तो वो बच जाती? या वनों में लकड़ी चोर, उपखनिज और शिकारियों को तो वनरक्षक पलक झपकते ही पकड़ लेते।
अंग्रेजों के जमाने के ये नियम बदले जाने की जरूरत है। उस समय न तो वाकी-टाकी थी, न संचार सुविधाएं, न ही सेटेलाइट या मोबाइल फोन। रेंज भी नहीं बंटे थे। अब जमाना बदल गया तो नियम भी बदलने चाहिए। साफ है कि ये नियम अंग्रजों के जमाने के हैं और अमानवीय है। एक अदद सी नौकरी के लिए 25 किलोमीटर की दौड़ जरूरी नहीं है। हालांकि राज्य अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के सचिव संतोष बडोनी से जब मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि लड़कियों ने भी ये रेस आसानी से पूरी कर ली। उनके अनुसार आईएफएस को भी यह दौड़ लगानी पड़ती है।
लेकिन मेरा कहना है कि यह अमानवीय दौड़ है। चार घंटे तक दौड़ना सहज नहीं जोखिम भरा है। इस नियम को बदले जाने की जरूरत है।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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