…तो क्या व्यर्थ चला जाएगा लोहारी गांव का बलिदान?

571
  • 120 मेगावाट व्यासी प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले संकट में
  • यमुना में पानी की कमी, यमुना से जुड़े महज महज 51 ग्लेशियर

व्यासी में बिजली उत्पादन शुरू होने के चौथे दिन ही टरबाइन के लिए पानी कम पड़ गया, तब अधिकारियों के चेहरों पर शिकन आई कि हाय, ये क्या हुआ? व्यासी बांध में दो टरबाइन हैं। दोनों को यदि क्षमता से चलाया जाए तो इसके लिए 60 क्यूसिक पानी चाहिए जबकि यमुना में महज 25 क्यूसिक पानी है। दोनों टरबाइन 60-60 मेगावाट की हैं। यदि पानी कम ही रहा तो दोनों टरबाइन एक साथ नहीं चलेंगी यानी बिजली उत्पादन आधा ही होगा और खर्च पूरा हो चुका है। यानी 1717 करोड़ की आधा चपत अधिकारियों और नेताओं ने मिलकर जनता को लगा दी है। इस पर भी न कोई जांच होगी और न कोई दोषी साबित होगा।
जानकारी के अनुसार जब व्यासी में टरबाइन चलाई जा रही हैं तो यमुना का पानी बिल्कुल सूख जा रहा है। नदी की संरक्षित मछलियों में शुमार महाशीर को ग्रामीण डंडो या पत्थरों से मार कर शिकार कर रहे हैं। बिजली उत्पादन के लिए झील में 630 आरएल तक पानी चाहिए। ऐसे में यमुना का प्रभाव पूरी तरह से रोकना होगा। यही कारण है कि जब लोहारी गांव डूबा और झील में पानी कम हुआ तो डूबा गांव दोबारा झील में उभर आया। क्योंकि तब पानी 627 आरएल पर था।
दरअसल, वैज्ञानिकों के अनुसार व्यासी और लखवाड़ बांध बनाने से पहले यह तो अध्ययन किया ही नहीं गया कि यमुना के ग्लेशियरों से कितना पानी आएगा? कोई जियोलॉजिकल सर्वे तो हुआ ही नहीं? वैज्ञानिकों के अनुसार यमुना में केवल 51 ग्लेशियरों से पानी आ रहा है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इतना बड़ा प्रोजेक्ट शुरू कर रहे हैं लेकिन उनके पास पानी कितना उपलब्ध है। इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। बांध प्रोजेक्ट पूरी तरह से ग्लेश्यिर के पानी पर ही बनाए जाते हैं लेकिन ग्लेशियर वैज्ञानिकों को प्रोजेक्ट से दूर रखा जाता है। ग्लेशियर का पानी जाड़ों में आता है। वह कम मेल्ट होता है। जबकि बरसात में पानी इतना अधिक आता है कि बिजली उत्पादन नहीं होता क्योंकि सिल्ट से टरबाइन खराब होने का खतरा है। मजेदार बात यह है कि सिल्ट में कौन से मिनरल आ रहे हैं, क्या वो टरबाइन को नुकसान पहुंचा सकते हैं या नहीं? इसकी भी कोई जानकारी प्रोजेक्ट से जुड़ी कंपनियों को नहीं होती। कारण, चट्टानें कैसी हैं? पहाड़ कैसे हैं? इसमें मिनरल कौन-कौन से हैं? कौन से मिनरल टरबाइन को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसका कोई अता पता बिजली उत्पादन करने वाली कंपनियों को नहीं पता होता।
वाडिया हिमालयन इंस्टीट्यूट के पूर्व वैज्ञानिक डा. डीपी डोभाल के अनुसार बदलते जलवायु चक्र से ग्लेशियरों का साइज प्रभावित हुआ है। लेकिन उनके पिघलने की रफ्तार अपनी मर्जी से होती है। क्योंकि ग्लेशियर के आसपास का वातावरण भी ठंडा ही होता है। बर्फबारी कम होने से पानी भी कम ही निकलेगा। उनका सुझाव है कि जब भी बांध बने तो पहला काम यह होना चाहिए कि हमारे पास पानी कितना है? यानी जब बारिश न हो, जब स्नो न गिरे तो पता होना चाहिए कि हमारे पास पानी कितना है? बायो रिजर्व बनाते हैं लेकिन उसमें पानी तो आना चाहिए।
यूजेवीएनएल के अफसर हास्यापद बयान दे रहे हैं कि बरसात में झील में पानी आ जाएगा। सवाल यह है कि क्या बरसात में टरबाइन पूरी क्षमता से चलेगी? क्या सिल्ट टरबाइन को नुकसान नहीं पहुंचाएगी? क्या कोई ऐसा सर्वे हुआ है कि यमुना की रॉक्स कौन सी है और इसमें कौन से मिनरल टरबाइन को नुकसान पहुंचा सकते हैं? यदि नहीं तो क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं कि इस बांध के लिए लोहारी गांव के इतिहास और सभ्यता की बलि ले ली गयी? इसका दोषी कौन होगा?
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

उत्तराखंड में भूमि अधिग्रहण की नई नीति बने

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here