कर्नल का इस्तीफा आप को नहीं, जनता को झटका

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  • हम पहाड़ी आज तक तय नहीं कर सके, क्या गलत है क्या सही!
    अधिकांश पहाड़ी अब मुफ्तखोर, बेईमान और कामचोर हो गये हैं!

कर्नल अजय कोठियाल ने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। क्या कर्नल के इस्तीफे को पार्टी ही नहीं राजनीति से भी इस्तीफा माना जाए? यह सवाल अभी अनसुलझा है। यदि कर्नल राजनीति से बाहर निकलते हैं तो फिर यह तय है कि यह जनता के लिए एक बड़ा झटका होगा। दरअसल, मैं कर्नल कोठियाल के इस्तीफे से कहीं ज्यादा अपने पहाड़ी समाज के नैतिक, सामाजिक और जीवन मूल्यों में आ रही गिरावट के बारे में अधिक कहना चाहता हूं। हम पहाड़ी अपने ही लोगों को स्पेस नहीं देते।
राजनीति में कर्नल कोठियाल ही नहीं अनेक कई ऐसे लोग आए हैं जो सही मायने में प्रदेश की सेवा करना चाहते थे लेकिन हमने उनको नकार दिया। वो संपन्न थे और उनकी नीयत साफ थी, हमने उन्हें मौका नहीं दिया। इसके बदले में हमने चिन्दी चोरों को, कमीशनखोरों को अपना नेतृत्व सौंप दिया। लिहाजा 20 साल में ही उत्तराखंड राज्य की अवधारणा ने दम तोड़ दिया। राज्य 70 हजार करोड़ के कर्ज में है और यदि पूर्व सैनिक उपनल के माध्यम से राज्य की सेवा नहीं करते तो यह कर्जा डेढ़ लाख करोड़ होता।
कर्नल कोठियाल बेदाग थे, हमें केजरीवाल से कहीं अधिक भरोसा कर्नल पर होना था लेकिन हमने कर्नल पर विश्वास नहीं किया। उस कर्नल पर जिसने महज पांच साल में दस हजार युवाओं का भविष्य संवार दिया। इतने रोजगार तो भाजपा की डबल इंजन सरकार भी नहीं दे सकी। भाजपा की सरकार ने पिछले पांच साल में 8500 लोगों को ही रोजगार दिया। हमने कर्नल की नीयत और उनके कर्म पर विश्वास नहीं किया। माना कि पार्टी गलत थी लेकिन आदमी तो सही था। भारतीय राजनीति में कई छोटे और बेकार दलों के अच्छे जनप्रतिनिधि संसद तक पहुंचे हैं और अकेले ही वहां सत्ता की नाक में दम किये रहते हैं।
आप ने मुफ्त बिजली आदि सुविधाएं देने की राजनीति की। कसम खाओ पहाड़ियो, मोदी सरकार पांच किलो राशन मुफ्त देकर हर महीने आपकी जेब से हजारों रुपये महंगाई के नहीं वसूल रही। किसानों को जो आधी अधूरी खैरात दी जा रही है क्या वह सुविधाभोगी राजनीति नहीं है? महंगाई से त्राहि-त्राहि हो रही है। बेरोजगारी में प्रदेश देश भर में प्रथम स्थान पर है, लेकिन हमें ये कमियां नहीं नजर आ रही है। हमें करोड़ों वर्ष पुराना हिन्दू धर्म खतरे में नजर आ रहा है। औरंगजेब के समय भी हिन्दू धर्म पताका लहराती रही। इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि हिन्दू धर्म कहीं खतरे में नहीं हैं, हां हमारा अस्तित्व जरूर खतरे में है। हमें बहकाया जा रहा है कि रूस-यूक्रेन का युद्ध हो रहा है तो महंगाई हो रही है। पेट की ओर न सोचे इसलिए हमें हिन्दू-मुसलमान के तौर पर लड़ाया जा रहा है। हमारे पेट के साथ दिमाग पर प्रहार हो रहा है और हम समझ ही नहीं रहे हैं।
उधर, पहाड़ में आलम यह है कि इन दिनों मनरेगा के कार्य चल रहे हैं। अपने ही खेतों में गड्ढा खोदने या बेवजह ही डांडों में बाढ़ सुरक्षा दीवार बनाने के नाम पर पैसा लुटाया जा रहा है। हम जमीन खोद रहे हैं और मिट्टी ढलानों पर डाल रहे हैं। बिना यह जाने कि एक इंच मिट्टी के निर्माण में 500 साल लग जाते हैं। मिट्टी बारिश में बह रही है। इससे भूस्खलन बढ़ रहा है और जलस्रोत सूख रहे हैं। हमें इसकी परवाह नहीं है क्योंकि हमें गड्ढे खोदने के पैसे मिल रहे हैं। ग्राम प्रधान से लेकर सत्ता के शीर्ष तक कमीशनखोरी हो रही है। हमें यह भ्रष्टाचार, यह बेरोजगारी, यह महंगाई, यह अंधकारमय भविष्य, यह वीरान होते पहाड कुछ भी नहीं सूझते। हम अंधभक्ति के शिकार हैं। हमने अपने इर्द-गिर्द एक मजबूत जाल बुन लिया है, ठीक कुएं के मेढ़क की तर्ज पर। ताजी हवा के बिना जीना सीख रहे हैं हम। सच है कि हम अधिकांश पहाड़ी अब मुफ्तखोर, बेईमान और कामचोर हो गये हैं।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

 

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