असिस्टेंट प्रोफेसर मनोज सुंदरियाल की मौत का जिम्मेदार कौन?

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  • यह हादसा नहीं हत्या है। सरकारों को इसका हिसाब देना होगा।
  • प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और मानकों की अनदेखी कर बन रहा महामार्ग

कल हमने पत्रकारों की नई पौध को सींचने वाला एक बेहतरीन प्रवक्ता और एक अच्छा इंसान खो दिया। नरेंद्रनगर के कालेज प्रवक्ता मनोज सुंदरियाल की कार पर बोल्डर गिरा और वो उसमें फंस गये। उनके भाई पंकज और ड्राइवर तो बच निकले लेकिन मनोज बुरी तरह से जख्मी हो गये और एम्स ऋषिकेश में इलाज के दौरान उन्होंने दम तोड़ दिया। क्या यह मान लिया जाए कि यह महज हादसा है? लेकिन मेरा मानना है कि यह हत्या है। इसके लिए राज्य और केंद्र सरकार दोषी हैं। सरकार की अदूरदर्शिता और कुप्रबंधन का सिला आम जनता को कब तक यूं ही भुगतना होगा? प्रवक्ता मनोज की असमय और असहज मृत्यु का जवाब कौन देगा? आखिर मनोज जैसे कितने लोग चारधाम महामार्ग पर यूं ही प्राण गंवा देंगे? आखिर सरकार कब चेतेगी?
जब भू-वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि हिमालय के साथ अधिक छेड़छाड न करें और केदारनाथ आपदा के माध्यम से भी प्रकृति ने चेताया था कि आपदा के घर में शीशे के महल मत बनाओ, तो चारधाम महामार्ग किसके लिए बन रहा है? जब पहाड़ आबाद नहीं हैं और पलायन नहीं रुक रहा तो ये 10, 12 और 14 मीटर चौड़ी सड़क किसके लिए? बार्डर खाली हो रहे हैं और चीन की घुसपैठ की घटनाएं बढ़ रही हैं तो यह महामार्ग किसके लिए? क्या ये सड़क महज ठेकेदारों, इंजीनियरों, अफसरों और नेताओं की कमीशन खोरी के लिए ही बन रही है। ये चारधाम महामार्ग की यशगाथा किसके लिए है? कम से कम यह सड़क उत्तराखंड की जनता के लिए तो नहीं बन रही?
वैज्ञानिकों के अनुसार किसी भी सड़क को स्थिर होने में कम से कम 25 साल लग जाते हैं तो तोताघाटी को तो बमों से उड़ाया गया है। क्या वहां के पहाड़ स्थिर होंगे? वैसे भी भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ पर सड़क का 30 से 35 डिग्री तक का ढाल ही स्टेबल होता है, लेकिन इस महामार्ग को तो बेतरतीब और अवैज्ञानिक तरीके से खोदा जा रहा है। तोताघाटी और समस्त चारधाम महामार्ग में एंगल आफ रिपोज न होने से हादसे होते रहेंगे।
वैज्ञानिक ट्रांस कनाडा हाईवे का हवाला देते हैं कि जिस तरह से कनाडा के हाईवे पर पेट्रोलिंग होती है, उसी तर्ज पर चारधाम यात्रा मार्ग पर भी पेट्रोलिंग हो। चारधाम मार्ग पर डेंजर जोन तो चुन लिए गये, लेकिन वहां पेट्रोलिंग नहीं होती। कनाडा में स्किल्ड मेट होते हैं। उनके पास राॅक क्लामिंग, रस्सी, कैंप, ड्रिलिंग मशीन, कटर आदि सभी संसाधन मौजूद होते हैं। यहां तो मेट के पास एक रस्सी भी उपलब्ध नहीं होती। एसडीआरएफ के पास भी संसाधन नहीं हैं। न ही पीडब्ल्यूडी या अन्य विभाग सड़कों के ठीक ऊपर भूस्खलन की आशंका या ठहरे हुए पत्थर को समय पर गिराने का काम नहीं करते।
चारधाम यात्रा मार्ग में मानकों की कोई परवाह नहीं की गयी है। रोड डिजायनिंग का एक नियम होता है कि आप एक्रास द बेड जा रहे हो या एलांग द बेड। बेड यानी चट्टान की परत। उसका सरफेस के साथ रिलेशनशिप क्या है। हर जगह अलग-अलग होता है। ऋषिकेश से बदरीनाथ तक खतरे ही खतरे ही हैं। चट्टान कब सड़ेगी, बोल्डर कहां अटका है, चट्टान में दरार कहां आ रही है, इसका कोई पता ही नहीं होता। आल वेदर रोड के मानक वही हैं तो लखनऊ-दिल्ली हाईवे के हैं। ये ही हादसों को न्योता है। पहा़ड में जहां भी सड़क कटेगी तो उसका ऊपरी और निचला ढाल को ध्यान में रखकर कटान होना चाहिए। ललित चोपड़ा कमेटी रिपोर्ट के आधार पर हाईकोर्ट ने भी माना था कि छह फीट की दीवार तीव्र ढाल को नहीं रोक सकती। स्लोप देकर एंगल आफ रिपोज नहीं होगा तो ढाल सुरक्षित नहीं होगा।
जब तक सरकार इस घाटी में स्लोप पर सपोर्ट की व्यवस्था नहीं करती और इसका वैज्ञानिक आधार पर सुरक्षा इंतजाम नहीं करती तब तक ऐसे हादसे होते रहेंगे। प्रवक्ता मनोज सुंदरियाल की क्षति हमारे पूरे उत्तराखंड की क्षति है। सरकार इस पर मनोज के परिजनों को एक करोड़ का मुआवजा दे। साथ ही पूरे चारधाम के लिए पेट्रोलिंग की व्यवस्था करे न कि इंतजार करें कि भूस्खलन हो या बोल्डर गिरे और तब जेसीबी भेजें।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

…और ढह गया घाटी के बाहर का बरगद

 

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