देसी शराब के ठेके पर एक शाम

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  • कुछ फिलासफर मिले तो कुछ अज्ञानी, कुछ मस्त-मौला
  • पियक्कड़ों को भेल-पूरी बेच रहा बड़े दिल वाला नौजवान अमन

कल की बात है। शाम के लगभग पौने आठ बजे थे। निरंजनपुर चौक से लालपुल की ओर आ रहा था। वी2 के ठीक सामने है देसी शराब का ठेका। ठेका देखते ही दिल मचल उठा। जा पहुंचा ठेके पर। यह ठेका दो भागों में बंटा है। एक भाग में महाठंडी बियर मिलती है। दूसरे भाग में देसी। बाहर फ्लेक्स लगा है कि यहां ओवररेटिंग नहीं की जाती। यह फ्लेक्स देख दिल जीत लिया इस ठेके ने। काउंटर पर 5 और 10 रुपये के ढेरों सिक्के थे, साफ था कि पैसे लौटाए जा रहे थे। दुकान के अंदर गंदे से गत्ते पर रेट लिस्ट टंगी थी। पव्वा 85 रुपये, अध्धा 170 और बोतल 330। वैराएटी और ब्रांड की परवाह किसे।
अधिकांश ग्राहक आ रहे थे। दस-दस के नोट लेकर और ऊपर से पांच रुपये खुले। यानी ठेके के सेल्समैन को अधिकांश को पैसे लौटाने की जहमत ही नहीं उठानी थी। करेक्ट 85 रुपये ही दे रहे थे। एक 20-22 साल का युवा ठेके पर दो पव्वे खरीदता है। मैं उसके पीछे लपकता हूं। शायद पव्वे की गर्मी रही होगी कि वह तेजी से साइकिल उठा कर चल दिया। उसके पीछे भागते-भागते मैंने पूछा, करते क्या हो। लेबरी। नाम नहीं बताया। वहीं, पर बाइक पर एक फिलासफर मिला। रेलवे में नौकरी करता है और रीठामंडी में रहता है। मैंने पूछा, सरकारी नौकरी करते हो तो देशी क्यों पीते हो? जवाब मिला, देखिए, परिवार की भी जिम्मेदारी है। उतना ही पैर फैलाओ, जितनी चादर हो। यदि मैं 1000 रुपये कमा रहा हूं तो 85 खर्च कर ही सकता हूं। मैंने पूछा, क्या पूरा पव्वा आज भी पी जाओगे? बोला, नहीं दो दिन में। मैंने कहा कि कुछ लोग नमक चाट कर पी रहे हैं। वह बोला, यह गलत है। आम काट लो, मूली, प्याज या कुछ सलाद तो ले लेना चाहिए। सूखा पीना ठीक नहीं। मैं उन महाशय का मुरीद हो गया।
ठेके से चंद कदम दूर एक आदमी शवासन की मुद्रा में था। उसके तीन-चार दोस्त भी टल्ली थे। मैंने कुछ पूछना अपनी इज्जत खराब करने जैसा माना। कुछ नहीं बोला, कुछ देर चित पड़े उस व्यक्ति को घूरता रहा। मुझे उससे घोर ईर्ष्या हुई। यहां हम बेकार में ही संसद में मर्यादा और अमर्यादा वाले शब्दों का रोना रो रहे हैं और वहां वह महज 85 रुपये में योगनिंद्रा में चला गया है जहां जाने के लिए बड़े-बड़े सिद्धपुरुष तरसते हैं। उसकी दोस्ती ऐसी कि, दोस्त उसके लिए आटो तलाश रहे थे। उधर, महाराष्ट्र में सत्ता के लिए दोस्ती का कत्ल हो गया।
अचानक मेरा ध्यान ठिठका। जहां वो सिद्धपुरुष सड़क किनारे योगनिंद्रा में था। उसके पास ही एक नौजवान ने भेल-पूरी की दुकान सजाई थी। उसे लगा कि पियक्कड़ कहीं झूमते-झामते उसकी दुकान पर गिर पड़े तो ग्राहकी तो जाएगी ही नुकसान होगा सो अलग। उसने दुकान कुछ दूर और खिसका ली। दुकान यानी नीचे लकड़ी का बेस और ऊपर भेल-पूरी की परात। एक मैगजीन के पन्ने फाड़कर वह शिद्दत के साथ पियक्कड़ों की सेवा कर रहा था। नाम है अमन। अमन गोरखपुर का है। चार साल पहले देहरादून आया। उसका भाई लालपुर पर टिक्की-बंद की रेहड़ी लगाता है। अमन बताता है कि वह रोजाना शाम 6 बजे से 10 बजे तक यहां भेलपूरी बेचता है। पढ़ा क्यों नहीं, अमन हंस देता है। कहता है लंबी कहानी है। अधिकांश ग्राहक 10 रुपये की भेलपूरी ही खाते हैं। 20 वाले कम हैं और कई-कई तो पांच वाले भी। अमन कहता है कि किसी को निराश नहीं करता। अमन हर रोज लगभग 700-800 रुपये की भेल पूरी बेच लेता है।
इस बीच सामने ही खाली प्लाट में रहने वाले पांच-छह साल के दो बच्चे आकांक्षा और रब्बू वहां आते हैं। आकांक्षा बड़ी है। वह पांच रुपये का सिक्का अमन को देती है। भेलपूरी मांगती है। अमन बताता है दोनों बच्चे खाली प्लाट में रहते हैं। अब दोनों को पांच रुपये में दो भेल-पूरी बना कर देना पड़ेगा। वह दस-दस रुपये वाली दो भेल पूरी बनाकर बच्चों को दे देता है। बच्चे खुश हो जाते हैं। मैं अवाक देख रहा था। सूझा ही नहीं कि उनकी पेमेंट मैं कर दूं। दिमाग में विचार कौंधा, संभवतः बच्चे इसी भेल पूरी खाकर ही रात न गुजार दें। बदन में सिहरन सी हो गयी। अमन संभवतः रोजाना ही उन बच्चों को भेल पूरी देता होगा। अमन की मां नहीं है, तो उसे एहसास होगा कि बिन मां के बच्चे कैसे पलते हैं। सहसा ही मुझे अमन का कद बहुत बड़ा नजर आने लगा और खुद के बौनेपन का एहसास हुआ। अमन दोनों को रोजाना खिलाता है। अमन के प्रति श्रद्धा लिए मैं चुपचाप आगे बढ़ गया। मुड़कर देखा, ठेके पर यूं ही लोगों का आना-जाना लगा हुआ था।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

अब संसद में सब मर्यादित होगा!

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