लाइव: श्मशान घाट पर पार्थिव देह का इंतजार

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  • मृतक या शोकाकुल परिवार को छोड़कर हो रहीं थीं बाकी सब बातें
  • जितनी देर, उतनी माथे पर शिकन, बॉडी आई तो चेहरे पर दिखी राहत

अंतिम सच यही है कि जिसने जन्म लिया है, उसने मरना है। सब इस सत्य को जानते हैं लेकिन स्वीकार करने से डरते हैं। इसे कहते हैं यूनिवर्सल ट्रुथ। मैं भी, अक्सर श्मसान घाट से गुजरते हुए चाहता हूं कि नजरें उस ओर न जाएं। दो दिन पहले दोपहर लगभग तीन बजे नालापानी श्मशान घाट पहुंचा। यहां पूर्व मंत्री हीरा सिंह बिष्ट की धर्मपत्नी प्रेमलता बिष्ट दाह-संस्कार होना था। चूंकि हीरा सिंह बिष्ट की देहरादून और प्रदेश के विकास में अहम भूमिका रही, इसलिए समर्थकों का तांता उनके निवास से लेकर नालापानी श्मशान घाट तक लगा रहा। यह पूर्व मंत्री हीरा सिंह बिष्ट का बहुत अच्छा फैसला था कि स्थानीय घाट पर अंतिम संस्कार किया गया। वरना, अब तो पर्वतीय जिलों से भी लोग दिखावे के लिए अपने स्थानीय घाट छोड़कर हरिद्वार में अंतिम संस्कार के लिए आते हैं। जबकि यह भी सच है कि पर्वतीय जिलों के सभी घाटों से आने वाले नदी-नाले भी हरिद्वार ही पहुंचते हैं। पहाड़ के लोगों को किसी के अंतिम संस्कार के लिए भला हरिद्वार आने की क्या जरूरत? हरिद्वार की तुलना में पर्वतीय इलाकों में गंगा और उसकी सहायक नदियां अधिक स्वच्छ और पावन हैं।
जब मैं घाट पर पहुंचा तो तब लगभग तीन बजे थे। मुझे दाह-संस्कार का यही समय बताया गया था। पता चला कि थोड़ी देरी हो रही है। मैंने उनके निवास पर जाने की बजाए यही इंतजार करने की सोची। गेट पर कोरोना काल की याद दिलाई गयी थी कि एक शव के साथ 15 से अधिक लोग न आएं। कोरोना के दौरान तो चार कंधे मिलने मुश्किल हो गये थे। कोरोना ने मनुष्य के स्वार्थ की हदों की पोल खोल दी। खून के रिश्ते भी परिजन के अंतिम संस्कार से कतरा रहे थे। मौत शास्वत है लेकिन मौत का खौफ उससे भी बड़ा होता है।
घाट के ठीक सामने मंदिर है। मंदिर की सीढ़ियों पर कांग्रेस के कार्यकर्ता बैठे थे। श्मशान घाट मिलन केंद्र भी होता है। लोग अब इतने बिजी हैं कि कभी-कभार ही मिलते हैं। ऐसे में कई एक-दूसरे से मिलने पर प्रसन्न हो रहे थे कि चलो इसी बहाने तो मिल लिए। गेट पर प्रदेश कांग्रेस के एक बड़े नेता फोन पर किसी शिक्षक के ट्रांसफर को लेकर कह रहे थे कि कल हर हाल में मंत्री से मिटिंग करवा दूंगा। उधर, एक वरिष्ठ नेता कुछ कार्यकर्ताओं के साथ घाट की सीढ़ियों पर बैठे हुए थे। उनके चेहरे पर बेहद उदासी नजर आई। अब इस उदासी का कारण हाल में उनके विधानसभा चुनाव हारने का रंज रहा होगा या अपने वरिष्ठ साथी के शोकमय होने की वजह से, कह नहीं सकता। खूब लंबी लाइन लगी थी, बैठने वालों की। इस बीच दो पुराने दोस्त जो कि कांग्रेसी कार्यकर्ता ही लगे, उछल कर ऊपर बनी सीमेंट की बेंच पर चले गये कि यहां बात ढंग से नहीं हो रही है।
साढ़े तीन बज गये तो इंतजार की घड़ियां गिन रहे लोगों के चेहरों पर सलवटें नजर आने लगी। एक बोला, बहुत देर हो गयी, आ जाना चाहिए था, दूसरे से सहमति से सिर हिला दिया। तीसरा टुकुर-टुकुर उन्हें देखने लगा। इस बीच एक बहुत ही बुजुर्ग वहां पहुंचा। संभवतः मानसिक रोगी सा लगा। वह गेट पर ही जोर-जोर से रोने लगो। लोगों ने उसे गेट के पास ही बिठा दिया। जैसे-जैसे भीड़ बढ़ रही थी तो घाट के बाहर ट्रैफिक जाम भी लग रहा था। बड़ी-बड़ी गाड़ियों के आने से यह संकरी सी सड़क और बौनी नजर आने लगी। लगा कि श्मशान घाट का रास्ता और अधिक चौड़ा होना चाहिए था। कई महानुभाव तो श्मशान घाट को ही कार पार्किंग स्थल समझ रहे थे। घाट के अंदर भी कार से ही पहुंचना वीवीआईपी होना है क्या? मैंने सोचा, ये अभी दो कदम पैदल नहीं चल पा रहे घाट तक पहुंचने के लिए, बाद में चार कंधों पर आएंगे। यही नीयति है।
खैर, लगभग चार बजे जब पार्थिव देह पहुंची तो इंतजार कर रहे लोगों ने मानो राहत की सांस ली। चिता तैयार होने से पहले सबको हीरा सिंह बिष्ट जी के आगे हाजिरी लगाने की चिन्ता थी। वह गमगीन होते हुए भी सभी का हाथ जोड़कर आभार व्यक्त कर रहे थे। इससे पहले कि चिता को अग्नि दी जाती। आधे से अधिक नेता टाइप कार्यकर्ता घाट से विदा हो गये। सच यही है कि अंत तक परिजन या दोस्त ही साथ देते हैं। सुख साझा होता है लेकिन दुख सिर्फ अपना। श्रीमती प्रेमलता बिष्ट को भावभीनी श्रद्धांजलि।
नोट – इस पोस्ट का उदेश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है। मानव स्वभाव पर आधारित है।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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