- स्पीकर प्रेमचंद अग्रवाल ने 129 पदों पर कर दी थी मनमानी भर्ती
- विधानसभा में नेताओं, पत्रकारों और अफसरों के रिश्तेदारों की फौज
दो दिन पहले की बात है। मुझे कृषि मंत्री गणेश जोशी की विदेश यात्रा को लेकर कुछ जानकारी लेनी थी। सीएम कार्यालय और कृषि विभाग, उत्तराखंड शासन ने पहले आरटीआई ले ली, लेकिन मेरे आसान सवालों की लिस्ट देखकर उन्होंने हाथ जोड़ दिये तो मुझे मजबूरन विधानसभा जाना पड़ा। वहां पता चला कि कृषि विभाग का पूरा अमला गणेश जोशी के कैंट रोड स्थित कैंप कार्यालय गया है। मेरी आरटीआई किसी ने नहीं ली। इसके बाद मैंने उसे रजिस्टर्ड पोस्ट किया है। मुझे पूरा विश्वास है कि ये पत्र भी बैरंग वापस लौट आएगा।
दरअसल, हमारी सरकार जनता को कुछ नहीं बताना चाहती। भर्ती के लिए आयोग बने हैं, लेकिन विधानसभा में स्पीकर की मर्जी है कि वह किसी भी तैनाती कर दें। भाई-भतीजावाद और पैसे देकर नौकरी हासिल करने का यदि खुला खेल देखना है तो विधानसभा सचिवालय चले जाओ। काम चवन्नी का नहीं है लेकिन वहां कर्मचारियों के लिए बैठने की भी जगह नहीं है। कारण, 560 कर्मचारियों और अधिकारियों की नियुक्ति। स्पीकर प्रेमचंद अग्रवाल के समय हुई 129 पदों पर भर्ती मामले को कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा ने उठा तो दिया, लेकिन यह नहीं जाना कि क्या इनमें तत्कालीन नेतापक्ष प्रीतम सिंह और पूर्व सीएम हरीश रावत का कोई आदमी भर्ती किया गया या नहीं? यह भी पता चला है कि प्रेमचंद अग्रवाल ने जो भर्तियां की, उनकी वित्त से स्वीकृति नहीं मिली थी। वित्त सचिव अमित नेगी ने तीन महीने बाद स्वीकृति दी। इसके बाद ही इन्हें वेतन मिला।
दरअसल, विधानसभा सचिवालय हाईप्रोफाइल लोगों के लिए अपने लोगों की भर्ती करने और पैसे लेकर लगाने का बैक डोर है। सच यही है विधानसभा में कई पत्रकारों और नेताओं की पत्नियां या रिश्तेदार समीक्षा अधिकारी से लेकर अनुसचिव तक काम कर रहे हैं। उनकी योग्यता है पालिटिकल अप्रोच। बाकी जो हैं, उनमें से अधिकांश को या स्पीकर की अनुकंपा पर नियुक्ति दी गयी या फिर पैसों का खेल हुआ। 70 विधानसभा सीटों वाली छोटी सी विधानसभा के पास 560 कर्मचारी हैं जबकि बताया जा रहा है कि यूपी विधानसभा सचिवालय में 543 ही कर्मचारी हैं।
प्रकाश पंत, गोविंद सिंह कुंजवाल, यशपाल आर्य के कार्यकाल में भी ऐसी ही बैक डोर से भर्ती हुई हैं। यानी भाजपा और कांग्रेस दोनों ही एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। इन भर्तियों में हुआ यह है कि कांग्रेस सत्ता में रही तो उसके स्पीकर ने विपक्ष के एक-दो लोगों के रिश्तेदारों को नौकरियां दे दी और ऐसा ही भाजपा ने भी किया। कुछ खुरचन पत्रकारों के हिस्से भी आ गयी। यानी नेता, अफसर, दलाल और पत्रकार मिल गये और हो गया भर्ती कांड। आखिर वह कौन सा नियम है जिसके तहत विधानसभा में सीधी भर्ती का अधिकार है? आयोग या किसी भर्ती एजेंसी की मदद क्यों नहीं ली जाती? इस भारी-भरकम फौज पर होने वाला खर्च गरीब राज्य कैसे उठाता होगा?
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी यदि आयोग की भर्तियों पर जांच बिठा सकते हैं तो ये बड़ा सवाल है कि विधानसभा में हुई भर्तियों की जांच भी करवाएं? यह बड़ा साहस का कार्य है। इसमें पक्ष-विपक्ष की पोल खुलेगी। क्या धामी सरकार में इतना साहस है कि वह इन भर्तियों की जांच करवाएंगे?
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]