गुसांई और लछिमा के साथ याद आया ‘गुलबंद‘

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  • कोसी का घटवार के लेखक प्रख्यात कथाकार शेखर जोशी का निधन
  • कालजयी रचनाकार शेखर दा को विनम्र श्रद्धांजलि

कल काला मंगलवार था। कथाकार शेखर जोशी के निधन का समाचार मिला। कुछ देर बाद पहाड़ की बेटी एवरेस्ट विजेता सविता कंसवाल के एवलांच में मारे जाने का दु:खद समाचार मिला। बहुत ही व्यथित रहा। लैपटॉप पर बैठा पर शब्द ही नहीं सूझ रहे थे, सविता का जीवन संघर्ष और सफलता पहाड़ की बेटियों के सशक्त होने की अनुपम उदाहरण था तो शेखर दा से मन के तार जुड़े थे। उनकी प्रतिनिधि कहानियां पहाड़ की पीड़ा को उजागर करती हैं।
कथाकार शेखर जोशी के निधन की जानकारी मिली। दिल में एक हूक सी उठी, और अचानक ही उनकी कथा कोसी का घटवार के पात्र गुसांई और लछिमा स्मृतियों में उभर आए। गुसांई और लछिमा की अधूरी प्रेमकहानी। गांव और पहाड़ याद आने लगे। कोसी का घटवार से मुझे अपने स्वर्गीय चाचाजी देवानंद जखमोला की अप्रकाशित और उनकी अधूरी कहानी गुलबंद भी याद आ गयी। जब मैंने चाचाजी की वह कहानी छिपकर पढ़ी तो तब मैं बच्चा था और आज अधेड़ होने के बावजूद यह नहीं समझ पाया कि वह कहानी थी या हकीकत। कोसी का घटवार निश्चित तौर पर कालजयी रचना है और चाचाजी की अधूरी कहानी में हो सकता है व्याकरण और अन्य दोष रहे हों लेकिन भावार्थ यही था कि फौजी का जीवन आसान नहीं। अक्सर देश प्रेम की कीमत उसे निजी प्रेम को बलिदान कर चुकानी पड़ती है।
1990 की बात है। पोर्ट ब्लेयर में चाचाजी-चाची के साथ रहता था। चाचाजी इंडियन नेवी में थे। एक दिन यूं ही आलमारी में पुस्तकों का ढेर पलट रहा था तो अचानक ही एक लंबी कैशबुक जैसी डायरी मिली। उत्सुकता से पेज पलटने लगा। एक पन्ने पर लिखा था गुलबंद। चाचाजी की हैंडराइटिंग गजब की थी। शब्द सोने जैसे चमकते। ऐसे लगते कि मानो टाइप किये हों। तब स्कूली छात्र था तो व्याकरण या अन्य बातों की समझ नहीं थी, लेकिन मैं वह डायरी अपने कमरे में ले गया और चुपचाप कहानी पढ़ने लगा। पहाड़ के गांव की कहानी थी। अगल-बगल के दो गांव। एक लड़के को एक लड़की भा जाती है। दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं। इस बीच लड़का पढ़ने के लिए दिल्ली जाता है और वहीं से फौज में भर्ती हो जाता है। जब रंगरूट कर घर पहुंचता है तो उसकी आंखें उसी लड़की तलाश रही होती हैं, लेकिन वह नजर नहीं आती। जब दूसरे दिन उसके गांव जाता है तो उत्साह में होता है कि लड़की का हाथ मांगने की बात करेगा। वह मिलती है, लेकिन अचानक ही फौजी की नजर लड़की के गले की ओर जाती है तो उसे नजर आता है गुलबंद और वह धक से रह जाता है। पहले के जमाने में गुलबंद पहनाने का अर्थ है कि लड़की की सगाई हो गयी। कहानी अधूरी ही थी। अंत क्यों नहीं लिखा, पता नहीं। न ही वह डायरी अब मेरे पास है।
कालेज के दिनों में कथाकार शेखर जोशी की कोसी का घटवार कई बार पढ़ी तो चाचाजी की कहानी भी याद हो आती। मैंने बाद में कई बार चाचाजी से गुलबंद के बारे में पूछने की सोची लेकिन हिम्मत नहीं हुई। महज 48 वर्ष की आयु में चाचाजी का ब्रेन हेमरेज से निधन हो गया। इसके बाद कभी चाची से पूछने की भी हिम्मत नहीं हुई कि आखिर वह डायरी या कहानी कहां है। यह राज है कि वह कहानी थी या हकीकत।
कथाकार शेखर जोशी महान कथाकार रहे हैं। उनकी कहानियों में आंचलिकता भी खूब छलकती है। उन्होंने जो देखा-भोगा, अपने जादुई शब्द-शिल्प से पिरो दिया। उनकी कालजयी रचनाओं में बदबू, मेंटल, दाज्यू, मेरा पहाड़, नौरंगी बीमार है, साथ के लोग आदि शामिल हैं। ऐसे कालजयी कथाकार को विनम्र श्रद्धांजलि। चाचाजी, मुझे आप बहुत याद आते हो, जीवन में आपकी कमी खलती है। आपको नमन।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

पहाड़ की बेटी सविता को नमन

 

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