गजब हाल: आखिर उत्तराखंड में कब तक गिरते रहेंगे पुल?

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  • जांच रिपोर्ट: एक हेल्पर की वजह से हुआ नरकोटा पुल हादसा
  • लोनिवि का पुल गिरा, उन्हीं के इंजीनियरों ने निपटा दी जांच

मैंने इंजीनियरिंग नहीं की है, लेकिन मैं इतनी सी बात समझ सकता हूं कि 120 टन लोहे के जाल की शटरिंग महज एक एक्सवेटर के टकराने से नहीं गिर सकती है। वह भी एक्सवेटर के टकराने के कई दिनों के बाद। जी हां, यदि यकीन किया जाए तो रुद्रप्रयाग के नरकोटा में एक हेल्पर की वजह से 66 करोड़ की लागत से निर्माणाधीन पुल की शैटरिंग गिर गयी और इसमें दबकर दो मजदूरों की मौत हो गयी जबकि आठ घायल हो गये। मजेदार बात यह है कि वह हेल्पर फरार हो गया और उसे आज तक नहीं तलाशा गया।
यह कोई फिल्मी कहानी नहीं, सत्य घटना है और इसकी पटकथा लिखी है लोनिवि के दो महान इंजीनियरों, राष्ट्रीय मार्ग वृत्त हल्द्वानी के अधीक्षण इंजीनियर अरुण कुमार और 10वां वृत्त के अधीक्षण अभियंता हरीश पांगती ने। लोनिवि का पुल गिरा। जांच भी उसी वृत्त के अधीक्षण अभियंता हरीश पांगती को सौंप दी गयी। जांच की निष्पक्षता पर सवाल तो उठेंगे ही। यदि सरकार निष्पक्ष जांच चाहती तो आईआईटी रुड़की या सीबीआरआई के वैज्ञानिकों को जांच सौंपी जाती।
मैंने 66 करोड़ की लागत से रुद्रप्रयाग के नरकोटा में बन रहे पुल को लेकर आरटीआई लगाई थी। इसमें पता चला कि आरवीएनएल ने सप्लीमेंट्री अनुबंध के आधार पर मेरठ की कंपनी आरसीसी डेवलपर्स को 66 करोड़ की लागत का यह पुल निर्माण कार्य सौंप दिया था। लगभग आठ करोड़ का अग्रिम भुगतान होने के बावजूद 20 जुलाई 2022 को पुल की शैटरिंग गिर गयी और हादसे में दो मजदूरों की मौत हो गयी थी और आठ घायल हो गये थे। मैंने आरटीआई से ही पुल गिरने की जांच रिपोर्ट मांगी थी। लोनिवि के 10 वृत्त ने मुझे आधी-अधूरी जांच रिपोर्ट दी है। दो पेज की इस जांच रिपोर्ट का सार यह बताया गया है कि पुल की शैटरिंग एक हेल्पर की गलती से गिरी।
यह दोनों इंजीनियर 20 जुलाई 2022 में रुद्रप्रयाग जिले में नरकोटा में निर्माणाधीन पुल गिरने की घटना के जांच समिति के सदस्य थे। दोनों वरिष्ठ इंजीनियर घटना के अगले दिन यानी 21 जुलाई को घटना स्थल पर पहुंचे और उन्हें पुल की डिजाइनिंग, कर्ब या कटिंग में कोई खामी नजर नहीं आयी। उन्होंने मान लिया कि अथोरिटी इंजीनियर ने जो पुल डिजाइनिंग की कसंलटेंसी की बात कही है वह सही है। कंसलटेंट भला कभी गलत होता है।
दोनों महान इंजीनियरों ने शेरलॉक होम्स की तर्ज मिनटों में पता लगा लिया कि 120 टन लोहे का जाल त्रिभुजाकार है और इसका झुकाव अंदर की ओर है। जांच आख्या में कहा गया है कि जाल को सहारा देने के लिए प्राप्स लगे हुए थे। प्राप्स अपनी जगह से विस्थापित हो गये तो पुल वजन नहीं सह सका और ढह गया।
प्राप्स यानी जाल का सहारा कैसे विस्थापित हुआ? इसका सस्पेंस खत्म करते हुए इंजीनियर अपनी कहानी बढ़ाते हैं और एक अदृश्य हेल्पर कहानी में जुड़ जाता है। जांच समिति ने अपनी आख्या में कहा है कि यह पूरी घटना एक हेल्पर ने अंजाम दी है और वह भाग गया है। बकायदा इसके लिए दो मजदूरों के बयान भी दर्ज किये गये हैं। इंजीनियरों ने अपनी आख्या में कहा है कि इस प्रकार की घटना के लिए मुख्य रूप से फर्म की लापरवाही प्रदर्शित होती है क्योंकि फर्म के द्वारा श्रमिकों और मशीनों के संचालन के लिए उचित प्रबंधन नहीं किया गया।
अब सवाल यह है कि एक्सवेटर वाला श्रमिक कहां है? जिन श्रमिकों ने उसे एक्सवेटर चलाते देखा तो क्या प्रबंधन को शिकायत की गयी? जांचकर्ताओं को कैसे पता चला कि कुछ दिन पहले एक्सवेटर के टकराने से ही प्राप्स विस्थापित हुए। पुल डिजाइनिंग को क्लीन चिट दी गयी है। यह भी विचारणीय है कि क्या पुल निर्माण के समय लोनिवि का कोई इंजीनियर वहां मौजूद नहीं रहता? क्या उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी? जबकि कार्य लोनिवि के तहत चल रहा है। क्या ठेकेदार कंपनी का कोई जिम्मेदार व्यक्ति वहां मौजूद नहीं रहता है? यदि हां तो फिर तो यह पुल पता नहीं कितनों की जान ले लेगा।
जांच आख्या को लेकर सवाल ही सवाल हैं। दो मजदूरों की जान गयी तो आख्या भी दो ही पेज की है। क्योंकि मजदूरों के जान की कोई कीमत नहीं होती। न मजदूरों के सुरक्षा उपकरणों की बात की गयी है और न ही लोनिवि के किसी इंजीनियर को जिम्मेदार ठहराया गया है। न तो डिजाइनिंग की जांच ठीक से की गयी है और न ही मौके पर पुल निर्माण देखभाल के लिए जिम्मेदार लोनिवि इंजीनियर का ही बयान है। अथारिटी इंजीनियर के टीम लीडर के बयान के तहत ही मान लिया गया कि पुल की डिजाइनिंग, कर्ब और कटिंग सही थी। यह भी उल्लेख कर दूं कि दोनों महान इंजीनियरों ने महज एक दिन यानी 21 जुलाई को ही मौका-मुआयना कर सब ज्ञान अर्जित कर लिया।
जबकि सच बात यह है कि यह पुल 66 करोड़ का बन रहा है। इसका आवंटन को लेकर ही आरवीएनएल, लोनिवि और ठेकेदार कंपनी आरसीसी डेवलपर्स के बीच गोल-मोल होने की आशंका है। क्योंकि मेरठ की इस कंपनी को सप्लीमेंट्री अनुबंध के आधार पर इतना बड़ा प्रोजेक्ट दे दिया गया। जबकि इसके टेंडर होने चाहिए थे। जांच आख्या में इंजीनियरों ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि क्या उक्त फर्म ने पहाड़ों पर पहले कभी पुल बनाए हैं?
इस मामले को लेकर मैं विजिलेंस के आईजी अमित सिन्हा से जल्द मिलूंगा। मेरी कोशिश है कि 66 करोड़ के इस अनुबंध की जांच हो और इन दोनों अधीक्षण अभियंता की निष्पक्षता और जांच प्रणाली की भी जांच हो।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं

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