- नैनीताल हाईकोर्ट अब हल्द्वानी में होगा शिफ्ट
- ये नेता कल बदरीनाथ-केदारनाथ को ले आएंगे हरिद्वार
मैं देहरादून की जिस कालोनी विजय पार्क में रहता हूं,(था) वह पॉश कहलाती है। कल दोपहर में मैने अपनी गली के एक छोर से दूसरे छोर तक देखा। हिसाब लगाया। 99 प्रतिशत पहाड़ियों के बच्चे दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू और विदेश रहते हैं। उनके बच्चे कहते हैं कि देहरादून आने के लिए उनके पास समय नहीं है। यदि मिलना हो तो दिल्ली, मुंबई बंगलुरू या विदेश आ जाओ। ये पहाड़ी बड़ी-बड़ी कोठियों में रहते हैं और नाती-पोतों की जगह कुत्ता घुमाते हैं। उनकी जिंदगी कुत्ते के इर्द-गिर्द घूमती है और उन्होंने कुत्ते को ही जीवन काटने का साधन मान लिया है।
उधर, गांव में न तो युवक रहना चाहते हैं और न ही युवतियां। पहाड़ में किसी तरह से बारहवीं पास करने और बीए आदि प्राइवेट पढ़ने के बाद लड़की और उसके मां-बाप की उम्मीद होती है कि उनकी बेटी की शादी देहरादून या दिल्ली में उस लड़के से हो, जिसके पास अपना मकान हो, सरकारी नौकरी हो। पहाड़ में कोई अच्छा लड़का मिल भी रहा हो तो भी वो उसके साथ अपनी बेटी का ब्याह नहीं करते। भौतिकता की चमक-दमक और बेटी के भविष्य की चिन्ता मां-बाप को तो होती ही है। इधर, शहर में अपने परिवार समेत आसपास हिसाब लगाया कि हमारी बहने, बेटे-बेटिया पहाड़ी लड़कों-लड़कियों को पसंद नहीं कर रहे है। दूसरे धर्मों में शादी करना पहाड़ियों के लिए स्टेटस सिंबल बन गया है। यानी पहाड़ की नस्ल खत्म होने के कगार पर है।
उधर, पहाड़ में भला अब कौन रहना चाहता है? नेताओं ने पलायन कर दिया। मास्टर-मास्टरनियां मजबूरी में रह रहे हैं। लेकिन उनके बच्चे मैदानों में ही हैं। फौजी कोटद्वार, रामनगर, देहरादून और हल्द्वानी में बस गये हैं। गांव का रुख भी नहीं करते। फिर पहाड़ों में बचा कौन? कुछ बुजुर्ग जिनका जीवन पहाड़ में ही बीता है और अब उनकी इच्छा ही है कि दम यहीं निकलें। कुछ मजबूर लोग जिनका शहरों में कोई ठिकाना नहीं है और कुछ वह लोग जिनकी रोजी-रोटी गांव में बचे-खुचे लोगों से चलती है। पहाड़ में अब कोई खुशी से नहीं रहना चाहता। पहाड़ में रहना चाहते हैं बंदर, भालू, सूअर और गुलदार। कुल मिलाकर पहाड़ मंकीलैंड बनने जा रहा है।
पहाड़ हमने किसके लिए और क्यों मांगा? आह! सब मेहनत बेकार गयी। नेता रूपी दलालों ने बेच दिया पहाड़ और पहाड़ के सपने। हम पहाड़ी नपुंसक बनकर सब देखते रहे। डरपोक और कायर कहीं के। इतिहास बहादुरों का होता है। हम कायर हैं, हम दूसरों के नौकर तो बन सकते हैं, लेकिन मालिक बनकर राज नहीं कर सकते। यही कारण है कि सचिवालय से लेकर विधानसभा में हम बस नौकर हैं और वह भी अपनी जमीन-संपत्ति बेचकर हासिल करने वाले डरपोक लोग। नौकरी में ही जीवन बिता रहे हैं। नौकर बनकर ऐसे ही मर जाएंगे।
नेताओं को ठंड लगी तो गैरसैंण में सत्र नहीं होगा। यातायात जाम में न फंसे तो गैरसैंण सत्र नहीं होगा। नैनीताल जाने में दिक्कत होगी तो हाईकोर्ट हल्द्वानी शिफ्ट होगा। केदारनाथ और बदरीनाथ में जब तक करोड़ों के कार्य हो रहे हैं और यह रकम ठिकाने नहीं लगती तब तक बदरीनाथ केदारनाथ हमारे तीर्थ हैं। देखना, निकट भविष्य में नेता बदरीनाथ और केदारनाथ को हरिद्वार ले आएंगे और तब हम सब मनसा देवी की पहाड़ी पर बदरीनाथ और चंडी देवी की पहाड़ी पर केदारनाथ मंदिर में माथा टेक रहे होंगे। तुम देखना पहाड़ियो। तुम देखना ऐसा ही होगा।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]