कनु फुटिन तुमरू कपाल, कख च ऐ चुनौ म हमरू पहाड़?

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  • मंदिर, हिन्दुत्व, टोपी और छदम राष्ट्रवाद में खो गये पहाड़ के मुद्दे
  • गैरसैंण राजधानी, रोजगार, मंकीलैंड, स्वास्थ्य और हिमालय पर क्यों नहीं होती बात?

मैं पिछले 24 घंटे से सदमे में हूं। कारण, पीएम मोदी ने पहाड़ी टोपी पहन ली और उत्तराखंड के निम्नतर स्तर से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक बहस हो रही है कि देखो, पीएम ने हमारी टोपी पहनी। क्या मोदी अमरीका या रसिया के पीएम हैं? हमारे पीएम हैं तो हमारी ही वस्तुएं पहनेंगे। वैसे भी चुनाव हैं और मोदी जबरदस्त मार्केटिंग करते हैं। यह सोची-समझी रणनीति थी। उन्हें पता था कि उत्तराखंड के लोगों को कैसे मूर्ख बनाना है। जैसे 2017 में श्रीनगर में गढ़वाली बोलकर बनाया। इस बार भी बना लेते लेकिन टेलीप्रोम्पटर प्रकरण ने सारा भेद खोल दिया। अब मार्केटिंग का नया तरीका है टोपी आफ उत्तराखंड।
खैर बात पर आता हूं। विधानसभा चुनाव में भाजपा की ओर से गढ़वाली-कुमाउंनी बोली, टोपी के अलावा राम मंदिर, मथुरा में मंदिर, हिन्दू और हिन्दुत्व खतरे में, आतंकी हमला, पाकिस्तान की नापाक हरकतें आदि बातें होंगी। कांग्रेस राहुल गांधी को युग पुरुष बतायेगी। हरीश रावत को पहाड़ का सबसे अधिक प्रेमी और उत्तराखंडित की बात की जाएगी। जबकि सब जानते हैं कि हरीश रावत उत्तराखंड राज्य आंदोलन के विरोधी थे। उधर, केजरीवाल बैठे-बिठाए ही उत्तराखंड वासियों को स्वर्गारोहणी से जीवित ही स्वर्ग ले जाना चाहता हैं। यानी सब बातें होंगी। वादे होंगे, झांसे दिये जाएंगे, लेकिन पहाड़ के मुद्दे चुनाव से गायब होंगे।
18 दिन बाद हमें नयी सरकार चुनने का अवसर मिलेगा। पिछले 21 साल का दंश और अगले पांच साल देने के लिए। चुनाव में ये सब बेकार के मुद्दे हैं और हम इन राजनीतिक दलों के झांसे में या सम्मोहन में फंस जाएंगे। इन 18 दिनों में हम ये नहीं पूछेंगे कि भई बताओ, आपदा में पिछले साल 500 से भी अधिक लोग मारे गये, उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? आपदा चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं है? हिमालय बदल रहा है, इसके संरक्षण का सवाल कौन उठाएगा? आपदा प्रबंधन स्कूली विषय क्यों नहीं है? सुदूर गांव में गर्भवती महिलाएं जंगल में बच्चों को क्यों जन्म देती हैं? घास-लकड़ी लेने गयी महिला को गुलदार अपना शिकार क्यों बनाता है? क्यों पहाड़ की फसलों को बंदर-सूअर नष्ट कर देते हैं? इनसे बचाव कौन करेगा? क्यों 21 साल बाद भी बूढ़ी मां का बेटा जवान होते ही मैदानों की ओर रोजगार के लिए पलायन करता है? गांव के स्कूल बंजर क्यों हो रहे हैं? युवाओं को टीचर या फौजी ही क्यों बनाना, उन्हें स्किल्ड क्यों नहीं बनाया? हमारे जल, जंगल और जमीन खतरे में क्यों हैं। आदि-आदि सवाल हैं।
हम ये सब कुछ नहीं पूछेंगे। हंसी आती है कि 80 प्रतिशत साक्षर जनता टोपी में उलझ जाती है और रोटी को भूल जाती है। कोरोना में हुई 7500 मौतों की भी परवाह नहीं। हजारों रोजगार छिनने की परवाह नहीं। टोपी याद है, राममंदिर याद है लेकिन रोजगार और आपदा भूल गये। पहाड़ियों, तुम्हारे पहाड़ और संस्कृति धीरे-धीरे खत्म हो रही है और तब न तुम पहाड़ी रहोगे और न मैदानी। बीच के रहोगे। तब न राम बचाएगा न श्याम। जागो। पहाड़ के मुद्दों पर सवाल करो और सोच-समझकर वोट दो।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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