कब बहुरेंगे सरस्वती विद्या मंदिर के शिक्षकों के दिन?

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  • खाली पेट शिक्षक अपने छात्रों को सिखा रहे देशभक्ति का पाठ
  • प्रदेश में अकुशल श्रमिकों से भी मिल रहा कम वेतन
  • डाकपत्थर से ग्राउंड जीरो रिपोर्ट

विकासनगर से लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित डाकपत्थर। यहां सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कालेज है। इस स्कूल में 650 बच्चे पढ़ते हैं। क्योंकि इलाके में अन्य कोई निजी स्कूल नहीं है ऐसे में यहां मुस्लिम बच्चे भी पढ़ते हैं। इस स्कूल में 24 लोगों का स्टाफ है। स्कूल का संचालन प्रबंधन कमेटी करती है। समिति के सदस्यों को भी आरएसएस नामित करता है।
स्कूल में बच्चों को प्रार्थना सभा से लेकर संस्कार और देशप्रेम की बात सिखाई जाती है। इस बार स्कूल की बोर्ड परीक्षा में एक बच्चे के 98 प्रतिशत अंक आए और 90 प्रतिशत से अधिक कई बच्चों के नंबर आए हैं। छात्रों को शिक्षक भैया कहते हैं और छात्राओं को बहन। इनसे जो फीस मिलती है उससे ही शिक्षकों और अन्य स्टाफ का गुजारा होता है। एक शिक्षक के मुताबिक अधिकांश शिक्षकों की सेलरी 5-6 हजार ही है। ऐसे में उनका गुजारा ही मुश्किल से होता है। गौरतलब है कि प्रदेश में अकुशल श्रमिक का वेतन भी लगभग आठ हजार न्यूनतम है। यानी आरएसएस के ये शिक्षक अकुशल मजदूरों से भी बुरा जीवन गुजारते हैं।
दरअसल, सरस्वती विद्या मंदिर के सभी स्कूलों की हालत ऐसी ही है। भले ही देश पर पिछले सात साल से भाजपा का राज हो और पार्टी का लाभ अरबों रुपये हो, लेकिन पार्टी अपने उस कैडर को चवन्नी देने के लिए तैयार नहीं है जिसकी बदौलत वो सत्ता में पहुंची। उत्तराखंड से पूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री निशंक भी सररस्वती स्कूल के शिक्षक रहे हैं। आज वो अरबपति हैं लेकिन उनका द्वारा इन स्कूलों के मास्टरों और अन्य स्टाफ की बेहतरी के लिए क्या किया गया है, यह विचारणीय है। वो सीएम भी रहे, लेकिन इन स्कूल मास्टरों के लिए कुछ नहीं किया।
आरएसएस के प्रचारक और अन्य पदाधिकारी आते हैं और स्कूल में लंबा-चौड़ा भाषण देते हैं। संस्कारों और देशभक्ति की बात होती है। हिन्दुत्व को खतरे में बताया जाता है लेकिन शिक्षकों की बात अधूरी रह जाती है। चप्पल ओर 250 रुपये का कुर्ता पहने शिक्षक की बेबसी तब और गहरा जाती है जब उनका खुद का बच्चा इंजीनियरिंग या मेडिकल की तैयारी करना चाहता है लेकिन उनके पास कोचिंग की फीस नहीं होती। सोचनीय बात तो तब है कि जब स्कूल के मेधावी बच्चों के लिए भी जो पुरस्कार और मेडल होते हैं वो भी किसी की स्पांसरशिप से लिए जाते हैं।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

यह समय भी बीत जाएगा

 

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