बच्चों को सब कुछ दिया, संस्कार नहीं दिये तो क्या दिया?

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  • राष्ट्रवाद और हिन्दू धर्म की दुहाई से नहीं चलेगा काम
  • काश, विनोद आर्य ने अपने बेटे को अच्छे संस्कार दिये होते, तो ये दिन न देखते!

16 सितम्बर को पिथौरागढ़ से एक प्राइवेट शेयरिंग बेस्ड कार से देहरादून आया। वहीं के एक सरकारी विभाग का जेई कार में हमारे साथ सवार था। जब भी उसका फोन आता तो रिंग टोन बजती, नमस्ते सदा वात्सले मातृभूमि, मुझे अच्छा लगा कि एक सरकारी कर्मचारी देश के प्रति इतना समर्पित है। काशीपुर में लंच के बाद जब दोबारा सवार हुए तो उसका फोन फिर बजा, उसने अपने किसी साथी को कहा, मैं हरिद्वार निकल गया हूं। लीव एप्लीकेशन मेरी टेबल पर है। तुम मेरी छुट्टी 20 से ही दिखाना। कारण 17 को शनिवार और 18 को रविवार था। 19 को भी उसकी एडेंटेंस लगी और 20 से छुट्टी। यानी उसने अपनी तीन ईएल बचा ली। उस फोन के बाद मुझे वह जेई बोझ लगने लगा। उसके प्रति मन घृणा से भर गया। चंडीघाट चौक पर जब वह उतरा तो उसने मुझे हैलो कहा, लेकिन मैंने मुंह फेर लिया।
मैंने पहले भी कहा कि मेरे घर के पास एक मंदिर है। वहां सुबह सुबह आरएसएस से जुड़े लोग देशभक्ति के गीत गाते हैं, लेकिन मंदिर के बाहर पानी के गड्ढे पर मिट्टी डालने को तैयार नहीं होते। मैंने वहां देखा, गरीबों के बच्चे ही आते हैं देशभक्ति के गीत गाने। जो संघी हैं उनके बच्चे कभी नहीं दिखाई देते। अधिकांश के बच्चे कांवेंट में पढ़ रहे हैं। यानी संघियों की उनके घर में भी नहीं सुनी जाती।
मेरा कहना यह है कि रिंग टोन लगाने या नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि गाने से राष्ट्रवादी नहीं बन सकते, न ही हिन्दू धर्म की रक्षा की जा सकती है। धर्म की रक्षा तो संस्कारों से होती है। वह संस्कार अपने बच्चों को दो।
आरएसएस से जुड़े विनोद आर्य ने अपने बेटे पुलकित आर्य को क्या नहीं दिया होगा। सोने के चम्मच से खाना खाता होगा लेकिन आज जेल की रोटियां तोड़ रहा है। पूरे देश में विनोद आर्य की थू-थू हो रही है। विनोद आर्य के दिये संस्कार आज पूरे देश को नजर आ गये। यदि विनोद आर्य ने पुलकित को अच्छे संस्कार दिये होते तो आज वह जेल में नहीं होता और एक होनहार बेटी अंकिता भंडारी आज हमारे बीच होती। उसके पिता के सपनों को पंख मिलते।
अपने बच्चों को भले ही महंगे मोबाइल, बाइक-स्कूटी कार या अन्य सुविधाएं भले ही न दो, लेकिन उनको अच्छे संस्कार जरूर दो। तभी हमारा धर्म, समाज और देश सुरक्षित रहेगा।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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