आओ, एक नयी लड़ाई लड़ें, खुद को बचाने के लिए

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  • भ्रष्ट और बेईमानों के खिलाफ करें जंग का ऐलान
  • उत्तराखंड में एक प्रेशर ग्रुप की सख्त जरूरत

नेता और अफसर कभी नहीं सुधरेंगे। यह तय है। ऐसे में पहाड़ बचाने के लिए हमें मिलजुल कर एक बार फिर नये सिरे से शुरूआत करनी होगी। मैं मानता हूं कि जनता की लडाई लड़ते-लड़ते बहुत से योद्धा थक गये हैं। घोर निराश हैं। सिस्टम से टकराना या पत्थर पर सिर पटकना, एक बराबर है। सच की हार और असत्य की जीत हो रही है। जो लोग कल तक भिखारी थे, चंदाखोर थे, दलाली करते थे, वही राज्य के नीति-नियंता बन गये। सत्तासीन हो गये।
हम सब देख रहे हैं। जनता निराश और हताश है। चारों ओर घनघोर अंधेरा है। हमें याद रखना होगा कि अंधेरा भले ही कितना भी घना हो, रोशनी की एक किरण ही उसे चीर कर जग में उजियारा फैला देती है। यदि हमें संघर्ष, त्याग और बलिदान से यह राज्य हासिल किया है तो हम अपने राज्य को भस्मासुरों के हवाले नहीं कर सकते। इन भस्मासुरी ताकतों के खिलाफ हमें लड़ना होगा। इनका मर्दन करना होगा।
हम योद्धा हैं, हमें लड़ना होगा, बिना यह परवाह किये कि एक उम्र हो चली सड़क पर लड़ते-लड़ते। हम शहीदों के सपनों की हत्या होते हुए नहीं देख सकते। पहाड़ को सिसकते हुए, उसे मरते हुए नहीं देख सकते। हमारी सभ्यता, संस्कृति और परम्पराएं सब खतरे में हैं। हमारे जल, जंगल और जमीनों पर ठेकेदारों और माफिया का कब्जा है। हमें जागना होगा, लड़ना होगा, बिना हार-जीत की परवाह किये।
यूकेएसएसएसी, सचिवालय भर्ती समेत प्रदेश में अब तक 200 से भी अधिक घोटाले हो चुके हैं। मासूम अंकिता की मौत के लिए भी नेता ही जिम्मेदार हैं। यदि सिस्टम ठीक होता तो अंकिता आज हमारे बीच होती। देहरादून में बैठे दिल्ली के राजनीतिक दलों के एजेंट हमारे संसाधनों की लूट खसोट कर बैग भरकर हर सप्ताह दिल्ली उड़ जाते हैं। दिल्ली के दलों के ये मैनेजर और एजेंट मिलकर हमें लूट-खसोट रहे हैं।
याद रखो लोगों, हम केवल इन दलों के वोट बैंक हैं। ये हमें दोयम दर्जे के नागरिक समझते हैं कि हमें रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाएं, अच्छी शिक्षा, बुनियादी संसाधन नहीं देना चाहते। जैसे नेता स्लम बस्ती के लोगों को पुचकार कर चुनाव के समय शराब और नोट देकर वोट खरीद लेता है, उसी तरह से ये नेता भी हमें ऐसे ही खरीद रहे हैं। पहाड़ स्लम बस्ती बन गया है और हम दोयम दर्जे के नागरिक इनकी वादों की बांसुरी की तान पर ऐसे मुग्ध हैं जैसे ‘पाइड पाइपर आफ हेमलिन‘। सुना ही होगा वह बांसुरी बजाता और हेमलिन के सभी चूहे उसके पीछे चलते हुए गहरी खाई में गिर जाते। ये छदम राष्ट्रवाद और धर्म की बांसुरी बजा रहे हैं और हम खाई में गिर रहे हैं।
अब अति हो चली है। आओ एक बार फिर जोर लगाएं, इन भस्मासुरी ताकतों के खिलाफ। लड़ना कठिन है, लेकिन लड़ना तो होगा। जब हम देश की सरहदों की निगहबानी कर सर्वोच्च बलिदान दे सकते हैं तो क्या अपने पहाड़ की रक्षा के लिए हम बुझदिल बनकर चुप रहेंगे? क्या हमारा खून नहीं खौलता? क्या हम यूं ही नपुंसक से बने चुप रहेंगे,? यदि हम चुप रहे तो अंकिता जैसे जघन्य हत्याकांड होते रहेंगे। यदि चुप रहे तो प्रेमचंद अग्रवाल और गोविंद सिंह कुंजवाल ठहाके लगाते रहेंगे। हाकम और मूसा जैसे हथियारों की आड़ में नौकरशाह और नेता हमारी बेबसी पर अट्हास करते रहेंगे।
यदि प्रेशरगुट में 10 लोग भी जुड़े तो सत्ता के गलियारे उनकी मुखर आवाज से कांपेंगे। एक ईमानदार हजार बेईमानों पर भारी पड़ता है। गांधी जी ने दांडी मार्च शुरु किया तो कितने लोग थे, जब मार्च पूरा हुआ तो कितने थे। आओ, पहल करें, एक बार खूब जोर लगाएं ताकि उजड़ते पहाड़ों को कुछ तो बचा सकें।
आओ, एक लड़ाई और लड़े़ अपने पूर्वजों की धरती बचाने के लिए, अपने अस्तित्व को बचाने के लिए।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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