सत्ता की थाप पर नाचते पत्रकार फिर भी नहीं बहुरे दिन

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– 195 साल बाद भी अधिकांश पत्रकारों के हालात बदहाल
– देश में सबसे सस्ता मजदूर है पत्रकार, टैग मिला ‘बिकाऊ मीडिया‘

तीन दिन पहले आज तक चैनल पर किसान नेता राकेश टिकैत एंकर अंजना के सवालों के जवाब में कह रहे थे कि एंकर और पत्रकार तो भाजपा के प्रवक्ता बन गए। उन्हें कोरोना की चिन्ता तो है कि दवा साहूकारों की तिजोरी में बंद है, लेकिन जो रोटी कुछ धन्ना सेठ अपनी तिजोरी में बंद कर करना चाहते हैं तो वो नजर नहीं आती। जब आदमी भूख से मरेगा, तो क्या तब जागेंगे? कोरोना की लड़ाई अस्पतालों तक जाती है और हमारी लड़ाई पार्लियामेंट तक।

यानि जब किसानों ने काला दिवस मनाने की घोषणा की तो अचानक ही मीडिया को कोरोना काल में किसान आंदोलन की चिन्ता सताने लगी। यही हाल पांच राज्यों के चुनाव के समय हुआ। चुनाव प्रचार के दौैरान किसी भी पत्रकार या चैनल ने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम के तूफानी दौरों और जनसभाओं पर सवाल नहीं उठाए, लेकिन मतगणना के दिन पश्चिम बंगाल में जब भाजपा चुनाव हारने लगी और ममता के समर्थक सड़कों पर नाचने लगे तो सारे चैनल और एंकर चिल्लाने लगे, कोविड गाइडलाइन का पालन नहीं हो रहा। यूपी में गंगा किनारे सैकड़ों शव दफन हैं, हवा से कफन उड़ गए। अब पत्रकार और चैनल पूरा जोर लगा कर साबित कर रहे हैं कि उस इलाके में शव दफनाने की परंपरा है, यह कोई नई बात नहीं।

बस, यही वजह है हिन्दी पत्रकारिता के पतन की। कुछ पत्रकार सत्ता और व्यापारिक घरानों की गोद में बैठ गए और टैग सब पर लग गया बिकाऊ मीडिया, गोदी मीडिया आदि-आदि। जबकि हकीकत यह है कि कॉरपोरेट जर्नलिज्म का लाभ गिनती के पत्रकारों को मिला। मसलन अच्छा पैकेज और सुविधाएं। यदि कुल मिलाकर बात की जाएं तो 10 प्रतिशत पत्रकार ही अच्छे सेलरी पैकेज पर हैं और बाकी 90 प्रतिशत आज भी बदहाल। पत्रकार अपने लिए भी नहीं लड़ पाते हैं। पत्रकार अपनी ही आवाज नहीं उठा पाते।

पत्रकारिता दिवस का मान बढ़ाया भोपाल-इंदौर ने

1826 में उदंड मार्तण्ड की शुरुआत हुई तो संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल के पास आर्थिक संकट था। 195 साल बाद आज भी यही हालत हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की है। लेकिन तब पं. शुक्ल के पास एक मिशन था, हिन्दुस्तानियों को जागरूक करने का। आज कोई मिशन नहीं है, छोटे पत्र-पत्रिकाएं सरकार के लाख गुण गाये तो भी पेट भर रोटी नहीं मिल पाती। यदि देश में मजदूरी का सर्वे किया जाए तो पता चल जाएगा कि सबसे सस्ता और सुलभ उपलब्ध मजदूर है हिन्दी पत्रकार। पानी का नल ठीक करने के लिए मिस्त्री 200 रुपये घर के आने के लेता है, मिस्त्री 800 और मजदूर 450 रुपये लेकिन पत्रकार एक प्याली चाय में उपलब्ध हो जाता है। आपकी दुःखों की दास्तान भी सुनेगा और उसे अखबार या चैनल में स्पेस भी देगा। उस पर तुर्रा यह कि उस पर टैग है ‘बिकाऊ मीडिया‘।

ऐसा नहीं हैं कि 195 साल की इस लंबी अवधि में हिन्दी पत्रकारिता का उत्थान नहीं हुआ। आज भी देश में हिंदी की लगभग 33 करोड़ प्रतियां रोजाना प्रकाशित होती हैं। लगभग 50 हजार हिंदी पत्र-पत्रिकाएं हैं। लेकिन पत्रकारिता पर औद्योगिक घरानों का कब्जा हो गया और वो अपने प्रॉफिट में से एक प्रतिशत भी पत्रकारों पर खर्च नहीं करते। संपादक ही व्यवस्थापक बन गए। मालिक उनको लाइजिंग एजेंट के तौर पर नियुक्त करता है। संपादक अपने दो-चार लोगों को ही सही पैकेज पर नियुक्त करता है और छोटे पत्रकारों का जबरदस्त शोषण करता हैं। हिंदी को मीडिया घराने कितना महत्व दे रहे हैं यह रिपब्लिक भारत और टाइम्स नाऊ को भी हिंदी चैनल लाना पड़ रहा है। यानी हिंदी पत्रकारिता को मुकाम तो मिला लेकिन पत्रकारों को इंसाफ नहीं मिला।

कोरोना काल में देश भर में सैकड़ों पत्रकारों की मौत हो गई। उत्तराखंड में ही कई पत्रकार कोरोना के शिकार हो गए लेकिन आलम यह है कि सरकार उन्हें फ्रंटलाइन वर्कर भी नहीं मान रही। कोरोना वैक्सीन के लिए भी पत्रकार और उनके परिजनों को तड़पाया जा रहा है। इसके बावजूद पत्रकार सरकारी गुणगान के लिए मजबूर हैं। उम्मीद होती है कि सरकार से विज्ञापन के तौर पर छोटी सी सही, लेकिन मदद मिल जाएं। जबकि ये विज्ञापन हमारा बुनियादी हक होना चाहिए। सरकार खैरात नहीं देती, जनता के पैसों को जनता की बात उठाने के लिए दिया जाना चाहिए लेकिन अंधेर नगरी, चौपट राजा की कहानी में हिंदी पत्रकारों के गले में फांसी का फंदा है। राजा बोला रात है, मंत्री बोले रात है, संतरी बोले रात है, ये सुबह-सुबह की बात है। हिंदी पत्रकारिता दिवस की शुभकामनाएं।

ख्वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार,

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