एक कहानी ऐसी भी: बड़ी कोठी का छोटे दिलवाला बेटा

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  • मां के लिए घर में दो दिन के लिए भी जगह नहीं
  • स्टेटस की खातिर न छत में जाने दिया न गली में

देहरादून की पॉश कालोनी वसंत विहार का इलाका। यहां लगभग सभी कोठियां आलीशान और विशाल हैं। नामी-गिरामी क्लास वन अफसरों की कालोनी है। इस कालोनी में मेरे एक रिश्तेदार की भी आलीशान कोठी है। रिश्तेदार एक बड़े ओहदे से रिटायर हो चुका है। बहुत पैसा कमाया। उसने यह मुकाम अपनी मेहनत और संघर्ष से हासिल किया। सुनते हैं कि कभी जब वह स्कूल जाता था तो उसके पैरों में चप्पल भी नहीं होती थी। एक जोड़ी कपड़े में ही दिन गुजर जाते थे। मां ने बहुत संघर्ष, त्याग-तपस्या से उसे पाला-पोसा।
उसकी मां आज उसे इस मुकाम पर पहुंचते देख फूले नहीं समाती, लेकिन उसे मां बोझ सी लगती है। मां दिल्ली में कम पैसे वाले दूसरे बेटे के पास रहती है। कभी-कभार ही देहरादून आती है। तो उसे और उसकी पत्नी को वह मां बोझ लगती है जिसने उस बेटे की तरक्की की खातिर न जाने कितने कष्ट झेले।
बड़ी कोठी वाले इस बेटे की बुजुर्ग मां दिल्ली में रहने वाली अपनी एक और बहन के साथ तीसरी बहन के घर कुछ दिन रहने के लिए आई। लगभग दो सप्तह बीतने के बाद बेटे ने औपचारिकतावश मां और दोनों मौसियों को देहरादून आने का न्योता दिया। ममतावश तीनों बस में सवार होकर दून पहुंच गयीं। शाम साढ़े छह बजे बेटे के घर पहुंची। दूसरे दिन सुबह दस बजे तक न चाय की पूछ न नाश्ते की चिन्ता। यह जानते हुए भी बुजुर्ग जल्दी उठ जाते हैं। खैर, नाश्ते के बाद तीनों को हिदायत दी गयी कि छत पर मत जाना बंदर हैं। गली में मत जाना, आवारा कुत्ते हैं। संभवतः बेटे को आस-पड़ोस का भय था कि कहीं पडोसियों को बताना न पड़ जाएं कि ये मेरी मां और उनकी बहनें हैं। दिन का भोजन, शाम की चाय और रात का खाना भी बेटे-बहू के समयानुसार हुआ, न कि मां या मौसियों के अनुसार।
एक दिन बीता और बेटा बोला, मां कल सुबह मौसी के घर छोड़ देता हूं। आज सुबह तीनों को बड़ी कोठी का छोटे दिल वाला बेटा एक बड़ी सी गाड़ी में सवार कर मौसी के घर छोड़ आया। पता नहीं, मां को इस बेटे पर गर्व होना चाहिए या नहीं। इस बेटे को हम बड़ा कहें, अमीर कहें या सचमुच गरीब।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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