एम्स मिला भी तो क्या, इलाज मिले तो बात बने!

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file photo source: social media
  • हजारों मरीजों की भीड़, स्टाफ का टोटा, धक्के ही धक्के
  • महीने भर में भी नहीं आता मरीजों की जांच का नम्बर

पीएम मोदी आज हल्द्वानी में एम्स ऋषिकेश के सेटेलाइट क्लीनिक का शिलान्यास करेंगे। यह अच्छी बात है कि मरीजों को भी इसका लाभ मिलेगा। लेकिन सवाल यह है कि इसका लाभ कुमाऊं के लोगों को मिलेगा या नहीं? एम्स ऋषिकेश में तो गढ़वाल के लोगों की तुलना में बिजनौर, धामपुर, मुजफ्फरनगर, रामपुर, बरेली के लोगों को ही लाभ मिल रहा है। इसका कारण है कि वो रात भर कहीं भी गुजार देते हैं और गढ़वाल से आने वाले मरीज ठिकाना ढूंढते हैं। लिहाजा जब सुबह एम्स में पहुंचते हैं तो टोकन खत्म हो जाते हैं। एम्स की ओपीडी के लिए सुबह 6 बजे से ही मरीज लाइन में लग जाते हैं। पहाड़ी लाइन से डरते हैं, इसलिए भी टोकन नहीं मिलते हैं। टोकन के लिए आधार कार्ड जरूरी है। 10 रुपये के पर्चे को देख दिल को राहत मिलती है लेकिन असली संघर्ष तो इसके बाद शुरू होता है। ओपीडी मरीज को इलाज के लिए कदम-कदम पर धक्के खाने पड़ते हैं। यहां इलाज आसानी से नहीं मिलता।
अपना उदाहरण देता हूं। मैं विगत दो माह से न्यूरो प्राब्लम का सामना कर रहा हूं। प्रख्यात न्यूरो सर्जन डा. महेश कुड़ियाल और मुख्यमंत्री के फिजिशियन डा. एन एस बिष्ट मेरा इलाज कर रहे हैं। सुधार भी हो रहा है लेकिन परिजन विशेषकर रिश्तेदारों का दबाव था कि एम्स में दिखाओ। पारिवारिक दबाव में एम्स गया। पत्रकार हूं तो एम्स के पीआरओ की मेहरबानी से पर्चे के लिए या डाक्टर से मिलने के लिए लंबी लाइन में नहीं लगना पड़ा। पीआरओ वीरेंद्र नौटियाल ने मदद की। उनके कहे अनुसार ही न्यूरो में डा. मृत्युंजय कुमार से अप्वाइंटमेंट लिया। लेकिन उन तक पहुंचना इतना आसान नहीं है। उनकी जूनियर डाक्टर ईशा देसाई ने आधे घंटे तक मुझे देखा, समझा और मेरे जेहन में बिठा दिया कि मुझे पैरालाइज भी हो सकता है। मैं डर गया। मैंने कहा कि मेरी बात डा. मृत्युंजय से कराओ तो वह तैयार हो गयी। लगभग 12 बजे थे, लेकिन डाक्टर साहब कहीं निकल गये। खैर, जूनियर डाक्टर ने मुझे सलाह दी कि एमआरआई करा लो। मैं कुछ ही दिन पहले एमआरआई करा चुका था लेकिन उसने वह रिपोर्ट नहीं मानी। कहा, इंजेक्शन के माध्यम से पता लगाया जाएगा कि आखिर दिक्कत कहां हैं। मैंने 3 टेसला मशीन से एमआरआई कराया था लेकिन एम्स की बात ही कुछ और है, सोचकर या डर कर तैयार हो गया।
डा. इशा ने मेरे पर्चे पर पत्रकार होने के नाते अरजेंट लिख दिया। इसका लाभ मिला और मुझे दूसरे ही दिन एमआरआई के लिए बुला लिया गया। मुझे किडनी फंक्शन टेस्ट कर लाने के लिए कहा गया। 6 नंबर पुलिस स्थित लाइफ केयर पैथोलॉजी सेंटर के संचालक राजेश रावत ने यह टेस्ट निशुल्क किया। खैर, अगले दिन मैं एमआरआई के लिए एम्स ट्रोमा सेंटर पहुंच गया। यहां एमआरआई, सीटी स्कैन और एक्सरे की जांच होती है। हाल खचाखच भरा था। एमआरआई के लिए 30 से भी अधिक लोग लाइन में थे और बीच-बीच में सीरियस मरीज आ रहे थे सो अलग। एक ही मशीन। नंबर का अता-पता नहीं।
सुबह दस बजे से 12 बजे गये। बीच मुझे लगा कि एक बार डा. मृत्युंजय से मिल लेना चाहिए। मैं न्यूरो ओपीडी में गया। डा. मृत्युंजय मिल गये। उन्होंने पुराने एमआरआई को देखते ही कह दिया कि सब ठीक है। वैसे एमआरआई करा लो तो और इनश्योर हो जाएंगे। मुझे पश्चाताप सा हुआ कि जूनियर डाक्टर ने बेवजह ही मेरा एमआरआई करने को लिख दिया। खैर, वापस ट्रोमा सेंटर लौट आया। इस बीच मेरा नाम पुकारा गया और मुझे इंजेक्शन लाने के लिए कहा गया। डीवीडी भी। अमृत क्लीनिक पर भी दवा खरीदारों का जमघट। कहा गया कि यहां दवाओं पर 80 प्रतिशत छूट है लेकिन मुझे जो इंजेक्शन दिया गया वह 1101 का था और मुझसे उतने ही वसूले गये। खैर, वापस ट्रामा सेंटर पहुंचा। तो कहा गया कि हाथ में कैडल लगा दो। नर्सिंग आफिसर ने बड़ी बेदर्दी से नस के अंदर सुई घुसा दी और टेप लगा दी। समय बीता जा रहा था लेकिन नाम नहीं आ रहा था। मैंने फिर सिफारिश लगाई यानी पीआरओ वीरेंद्र नौटियाल को फोन लगाया। उन्होंने कोई नाम बताया। वो महाशय, छुट्टी पर थे। मेरी बैचेनी बढ़ रही थी। इंतजार नहीं हो रहा था। इस बीच अगल-बगल में बैठे लोगों से पूछा तो होश उड़ गये। कोई धामपुर से अपनी पत्नी का एमआरआई कराने आया था, उसे 22 नवम्बर के दिन 24 दिसम्बर की डेट मिली थी। टिहरी के एक व्यक्ति की स्पाइन की सर्जरी एम्स में ही हुई थी, उसको दो महीने बाद की डेट मिली थी। ऐसे ही कई लोग थे जिनको जांच के लिए एक महीने से भी अधिक दिन की डेट मिली। ऐसे में मुझे सुकून मिला कि मैंने इंतजार नहीं किया। इसके बाद मैंने सिफारिश का इरादा त्याग दिया। शाम लगभग 6 बजे मेरा नंबर आया। एमआरआई के बाद कोई भी ऐसा नहीं मिला जो मेरे हाथ पर लगा कैडल निकाल देता। नर्सिंग स्टाफ लापता था। इमरजेंसी में गया तो वहां भी नर्सिंग आफिसर ने मुंह बना लिया। आखिर एक जेंट्स नर्सिंग आफिसर ने स्टाफ की कमी का रोना रोते हुए मेरा कैडल हटाया।
डा. मृत्युंजय मंगल और शुक्र को ही बैठते हैं। मैंने तय किया कि रिपोर्ट मंगलवार को ही लूंगा ताकि डाक्टर को भी दिखा सकूं। यहां रिपोर्ट हासिल करना भी युद्ध के समान है। सैकड़ों की लाइन और रिपोर्ट देने वाला महज एक। वो किसी की सुनता ही नहीं। गारंटी नहीं है कि लाइन में घंटों लगने के बाद कह दे कि रिपोर्ट अभी आई नहीं। खैर, किसी तरह से रिपोर्ट हासिल की। रिपोर्ट में कुछ नहीं निकला। डा. मृत्युंजय की ओपीडी में गया तो पता चला कि वो छुट्टी पर हैं। मुझे डराने वाली डा. ईशा देसाई भी कैबिन में नहंी थी। नर्सिंग आफिसर ऐनी ने बड़ी मदद की। नया पर्चा बना दिया कि डा. निकिता को दिखा दो तो वो मेडिसिन लिख देगी। मैंने डा. निकिता को देखा तो वह डा. ईशा से भी जूनियर नजर आई। बस, क्या था, मैंने तय कर लिया कि बहुत हुआ एम्स। गुड बाय। बिना दवा लिखाए खाली पर्चा लिए वापस देहरादून लौट आया।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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