- घंटाघर से नथुवाला तक पहुंचने में लगे ढाई घंटे
- नथुवाला से मियांवाला चौक तक पहुंचना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं
आज मुझे किसी का इंटरव्यू करने के लिए नथुवाला जाना था। सुबह लगभग 11 बजे मैं आईटीएम स्थित अपने स्टूडियो से वहां जाने के लिए निकला। मैं इन दिनों वाहन नहीं चला सकता। तय किया कि आटो से जाऊंगा। फिर सोचा चलो, आज सार्वजनिक वाहन सुविधा का उपयोग कर लें। यमुना कालोनी मोड़ से घंटाघर के लिए विक्रम पकड़ा। विक्रम वाले ने चुक्खुवाला के पास ही उतरने का आदेश दे दिया। बहाना बनाया कि पुलिस घंटाघर तक नहीं जाने देती। सच भी हो सकता है। यानी एक किलोमीटर पहले ही उतार दिया। मैं वहां से पैदल चलकर दीनदयाल उपाध्याय पार्क तक पहुंचा। वहां से डीएल रोड-एमडीडीए तक की बस पकड़ी। सोचा, रिस्पना से दूसरी बदलूंगा। ड्राइवर महाशय ने देर तक पार्क के गेट पर बस रोकी फिर दस मिनट के बाद चला तो दस कदम आगे चलकर तहसील चौक की रेड लाइट पर दस मिनट रोक दी। किसी सवारी ने कुछ नहीं बोला। वहां से थोड़ा आगे बढी बस एक बार फिर प्रिंस चौक पर खड़ी हो गयी। अब मुझसे सहन नहीं हुआ तो उतर गया। इस बीच परेड ग्राउंड से जौलीग्रांट वाली बस आ गयी। उसमें सवार हो गया। भाई, ने कानफोड़ू पंजाबी गीत लगाए थे। ड्राइवर शायद दिलजला आशिक था। बस चलाते-चलाते मोबाइल पर बात करता। राम-राम करते रिस्पना निकला तो लगा कि अब तो चलेगा, लेकिन जोगीवाला फ्लाईओवर पार कर उसने बस साइड में लगा दी। दस मिनट बाद जब राइवल बस आई तो फिर बस दौड़ाई। किसी तरह से मियांवाला चौक पहुंच गया।
जिनका इंटरव्यू करना था उन्होंने कहा था कि मियांवाला चौक से नथुवाला के लिए पूछ लेना। नजदीक है। चौक के पास आटो स्टैंड है। तीन आटो वालों से पूछा, तो 200 रुपये से कम में तैयार नहीं थे। मैंने कहा कि चार किलोमीटर के 200 रुपये? वो बोले कि वापसी में सवारी नहीं मिलती। ई-रिक्शा वाले से बात की तो 100 रुपये में मान गया। मुझे तसल्ली हुई। लेकिन नथुवाला के देहरादून ग्लोबल स्कूल के गेट पर से आगे खिसकने के लिए तैयार नहीं हुआ। दरअसल मैंने उसे स्कूल के पास छोड़ने के कहा। कहने लगा कि एक्सट्रा चार्ज लगेगा। मैं दे सकता था लेकिन महज 200 मीटर की दूरी के लिए यह रकम मुझे चुभने लगी। सो, मैंने ई-रिक्शा छोड़ दिया। अपने लक्ष्य तक पहुंचने में मुझे ढाई घंटे का समय लग गया।
वापसी के समय नथुवाला से श्मसेरगढ़ चौक तक लगभग दो किलोमीटर की दूरी पैदल तय की। एक भी आटो-विक्रम या ई-रिक्शा नजर नहीं आया। दुपहिया वाहन चालक अकेले नहीं आ रहे थे। खैर, श्मशेरगढ़ चौक पर एक बिना हेलमेट के बाइक सवार से लिफ्ट मांगी। वो मेरी मजबूरी समझ गया। वो मियांवाला चौक से कुछ पहले ही दूसरी सड़क पर मुड़ना चाहता था लेकिन अचानक ही उसने कहा कि मैं आपको चौक तक छोड़ देता हूं। मुझे बहुत राहत मिली। उसका आभार जताया और मियांवाला चौक से जोगीवाला के निकट कपिल डोभाल के बूढ़ दादी रेस्तरां में पहुंचा। बिंजरी खाई और चाय पी। थोड़ा आराम मिला।
इस बीच में बहुत परेशान हो चुका था। अब सार्वजनिक वाहन में जाने की हिम्मत नहीं थी। कपिल के रेस्तरां से वाइफ को फोन किया, वह बेटी को कोचिंग से लेने धर्मपुर आ रही थी, उसे बुला लिया और फिर घर आने तक कार की सीट पर लेट कर इस मुश्किल सफर का अंत हुआ।
यदि आपके पास निजी वाहन नहीं है तो फिर देहरादून में आपको कदम-कदम पर धक्के खाने होंगे। यानी स्मार्ट सिटी और राजधानी देहरादून में सार्वजनिक वाहनों की हालत बहुत ही बुरी है। छोटे से शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचने में ही घंटों लग जाते हैं। भला सार्वजनिक परिवहन की सुविधा की मांग क्यों नहीं उठती? आज समझ में आया कि शशि थरूर ने आम लोगों को कैटल क्लास क्यों कहा था? हम सब अपनी असुविधा से कहीं अधिक नेताओं की सुविधा देखते हैं, उनके बहकावे में आते हैं। हम देश प्रेम, हिन्दू-मुस्लिम में या निजी स्वार्थ में बंट कर नेताओं को वोट दे देते हैं लेकिन सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था, स्वच्छता, पर्यावरण, स्वास्थ्य और शिक्षा पर चुप्पी साध लेते हैं।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]