मुसलिम महिलाओं की प्रजनन क्षमता हुई कम

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  • यूपी में हिंदू परिवारों में टीएफ़आर 2.29 तो तमिलनाडु में मुसलमान महिलाओं में 1.93
  • बच्चों की संख्या धर्म से कहीं अधिक शिक्षा, आर्थिक और मानसिकता पर आधारित

हम भले ही जनसंख्या बढ़ने के लिए किसी धर्म या संप्रदाय को जिम्मेदार मानते हों, लेकिन नेशनल फेमली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट और विशेषज्ञों की माने तो परिवार में बच्चों की संख्या का आधार परिवार की आर्थिक स्थिति, शिक्षा और मानसिकता पर आधारित है। जिन हिन्दू परिवारों में पहले दो बेटियां हो गयी तो वहां अधिकांशत बेटे की चाहत में तीसरा बच्चा भी हुआ। भले ही वह फिर बेटी हो गयी हो। शहरों की तुलना में ग्रामीण महिलाओं में अधिक प्रजनन क्षमता है।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5 के आंकड़ों की बात करें तो भारत में सभी धर्मों और जातीय समूहों में कुल प्रजनन दर या फर्टिलिटी रेट में कमी आई है। सर्वे- 4 (2015-2016) में जहाँ फर्टिलिटी रेट 2.2 थी, वहीं सर्वे -5 (2019-2021) में ये घटकर 2.0 पहुंच गई। 1970 के दशक की शुरुआत में, महिलाओं के औसतन 4.5 बच्चे थे. जो 2015 तक प्रजनन क्षमता प्रति महिला 2.5 बच्चों से कम हो गई थी।
भारत में अब भी मुसलमानों की प्रजनन दर सभी धार्मिक समूहों से ज्यादा है। साल 2015 में हर मुसलमान महिला के औसतन 2.6 बच्चे थे. वहीं, हिंदू महिलाओं के बच्चों की संख्या औसतन 2.1 थी। सबके कम प्रजनन दर जैन समूह की पाई गई। जैन महिलाओं के बच्चों की औसत संख्या 1.2 थी। साल 1992 में मुसलमानों की प्रजनन दर सबसे अधिक (4.4) थी। दूसरे नंबर पर हिंदू (3.3) थे। पिछले 25 वर्षों में यह पहली बार हुआ है जब मुसलमान महिलाओं की प्रजनन दर कम होकर प्रति महिला दो बच्चों के क़रीब पहुंची है।
यह तथ्य भी विचारणीय है कि दुनिया की आबादी 1 अरब होने में लाखों साल लग गए. लेकिन 1 अरब से 7 अरब तक पहुंचने में महज़ क़रीब 200 साल ही लगे। इसी तरह वैश्विक जीवनकाल जो 1990 के दशक की शुरुआत में 64.6 साल थी, वो 2019 में बढ़कर 72.6 साल हो गया है। अनुमान के मुताबिक़, 2027 के आसपास आबादी के मामले में भारत, चीन को पीछे छोड़ देगा और दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा। इस वक्त चीन की आबादी क़रीब 1 अरब 44 करोड़ है। वहीं भारत की आबादी 1 अरब 40 करोड़ के आसपास है।
भारत में सबसे ज़्यादा संख्या वाले हिंदू और मुसलमान देश की कुल आबादी का 94 प्रतिशत हिस्सा हैं यानी करीब 1.2 अरब। साल 1947 में बंटवारे के बाद से लेकर अब तक भारत की जनसंख्या तीन गुणा बढ़ी है। साल 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी, जो साल 2022 तक 140 करोड़ के क़रीब पहुंच गई। ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन धर्मों के अनुयायी भारतीय जनसंख्या का 6 प्रतिशत हैं। हिंदुओं की आबादी 30 करोड़ से बढ़कर 96.6 करोड़, मुसलमानों की आबादी 3.5 करोड़ से बढ़कर 17.2 करोड़ और ईसाइयों की आबादी 80 लाख से बढ़कर 2.8 करोड़ हो गई। मुसलमान भारत की कुल आबादी का 14.2 प्रतिशत हिस्सा हैं। इंडोनेशिया के बाद सबसे ज़्यादा मुसलमान भारत में ही रहते हैं। 1992 में भारतीय महिलाओं की प्रजनन दर औसतन 3.4 थी, जो साल 2015 में 2.2 हो गई। इस अवधि में मुसलमान औरतों की प्रजनन दर में और ज्यादा गिरावट देखी गई जो 4.4 से घटकर 2.6 हो गई।
भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में जहां हिंदू परिवारों में टीएफ़आर 2.29 है, वहीं तमिलनाडु में मुसलमान महिलाओं में ये 1.93 है। ऐसे में इसे धर्म के बजाए शिक्षा और आर्थिक कारणों से जोड़ा जाना चाहिए। क्योंकि जहां महिलाएं शिक्षित हैं, वे कम बच्चे पैदा कर रही हैं।
भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने साल 2016 में मिशन परिवार विकास की शुरुआत की थी। ये योजना उन सात राज्यों के 145 ज़िलों में शुरू की गई थी, जहाँ फर्टिलिटी रेट ज़्यादा है, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और असम। इस मिशन का लक्ष्य फर्टिलिटी रेट को साल 2025 तक 2.1 से कम करना है। टीएफआर जब 2.1 तक पहुंचती है, तो उसे रिप्लेसमेंट लेवल फर्टिलिटी कहा जाता है। इस आंकड़े तक पहुंचने का मतलब होता है कि अगले तीन से चार दशक में देश की आबादी स्थिर हो जाएगी।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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