एक गुमनाम आंदोलनकारी ऐसी भी

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  • प्यारेश्वरी सकलानी, उम्र पता नहीं, जज्बा अल्हड़ छोरी सा
  • उम्र के इस पड़ाव भी दिल में आग लिए फिरती है

30 जुलाई की बात है। एडवा और विभिन्न संगठनों ने मणिपुर मुद्दे पर देहरादून के गांधी पार्क में मानव श्रृंखला बनाई। मणिपुर में दो महिलाओं पर हुए अत्याचार के खिलाफ महिलाओं में आक्रोश था। बड़ी संख्या में इस प्रदर्शन में महिलाओं की भागीदारी थी। इस भीड़ में कई बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल हुईं। इनमें से एक बुजुर्ग को मैंने कचहरी परिसर में भी उस वक्त देखा जब पुलिस ने युवा बेरोगजारों पर लाठीचार्ज किया था और बेरोजगार कचहरी परिसर में धरने पर बैठे थे। यह बुजुर्ग महिला ऐसे ही कई बार मुझे उन धरने-प्रदर्शन में नजर आ जाती है जब राज्यहित और देश के कई मुद्दों पर जनता सड़कों पर मुखर होती है। मानव श्रृंखला गांधी पार्क से घंटाघर होते हुए दोबारा गांधी पार्क पर समाप्त हुई। इसमें वह बुजुर्ग महिला भी शामिल हुई।
मानव श्रृंखला प्रदर्शन समाप्त होने के बाद गांधी पार्क गेट की मुंडेर पर थक कर बैठी यह बुजुर्ग महिला मुझे अपनी ताई जैसी लगी। मैं उनके बराबर में बैठ गया। पूछा, आप प्रदर्शन में शिरकत करनी आई हैं। वह प्यारी सी मुस्कान लिए बोली, हां। मैंने पूछा कि आपकी उम्र कितनी है? वह खिलखिलाकर हंसी और गढ़वाली में बोली, मैं भी नहीं पता। तुम्ही बताओ दी, मैंने अंदाजे से कहा, 70, वह फिर जोर से हंसी और बोली होगी 70-75। मैंने फिर पूछा, क्या आप जानती हैं मणिपुर में क्या हुआ? वह बोली, हां, मैंने पूछा किसने बताया? टीवी में न्यूज देखती हूं। महिलाओं से सुना। क्या बुरा लगा? हां, क्यों नहीं लगेगा। बुरा तो लगता है। वह बहुत ही सरल और सहजता से बता रही थी और मैं सुन रहा था।
मैंने नाम पूछा तो बोली प्यारेश्वरी सकलानी। मैंने पूछा सकलाना से हो क्या? बोली टिहरी खासपट्टी से। मैंने फिर पूछा, आप कभी स्कूल गयीं? वह हंसते हुए बोली, नहीं, लेकिन द्वी-द्वी भैंसा पलीं मिल। मैंने पूछा मैंने आपको अक्सर प्रदर्शनों में देखा है। वह बोली, हां बाबा, बहुत पहले से ही। राज्य आंदोलन के समय से ही। बाबा, बहोत लड़ै लड़ी हमल। बहोत। मैंने पूछा जेल भी गयीं आप? ‘झूठ किलै बुलण, जेल नि गाई पर पुलिस लाइन में सुबेर भटै, देर शाम तक कई बार बंद रौं‘। अब उन्हें राज्य आंदोलनकारी की पेंशन मिलती है।
प्यारेश्वरी सकलानी के पति हाइडिल में काम करते थे। मैंने पूछा कि देहरादून कब आए। फिर वही मासूम सा जवाब, मेरि बड़ी नौनी सात साल ह्वै ग्या छाई तब। फिर याद करते हुए अचानक से बोली, वै साल इंदिरा गांधी मौरि छायी। यानी 1984। पहले कौलागढ़ सरकारी क्वार्टर में रहे और फिर धर्मपुर में घर बना लिया।
उनके दो बेटे और दो बेटियां हैं। बेटियां शादी के बाद दिल्ली में रहती हैं और दोनों बेटे देहरादून में ही प्राइवेट नौकरी करते हैं। यह विडम्बना है कि उनके बच्चों को भी राज्य आंदोलनकारी होने के बावजूद क्षैतिज आरक्षण नहीं मिला और यहां कैबिनेट मंत्री के बच्चों को विधानसभा सचिवालय औेर मात्र 13 नंबर लाने पर भी सरकारी अफसर की नौकरी मिल जाती है।
मैंने आखिरी सवाल पूछा, राज्य बनने के बाद क्या ठीक है। मासूमियत से बोली, कहीं ठीक है, कहीं ठीक नहीं है। बाकी तुम जाण। ताई जी के इस जज्बे और समाज के प्रति जागरूकता को सलाम। साथ ही उनके अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

ये पठान फिल्म का सीन नहीं है, बाबा केदार के धाम का है!

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