प्रवासी की कसक और उमंग का दस्तावेज- “यादों के इंद्रधनुष”

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“यादों के इंद्रधनुष” (अतीत की अनुपम गाथा) पुस्तक लेखक, कवि और पत्रकार सुरेश पाण्डे के शब्दों में उनकी स्मृतियों का गुलदस्ता है, जिसमें उनके जीवन के सभी पड़ावों की कहानी है। बात भी सच है, उन्होंने किसी भी कठिनाई के दौर में न माता-पिता की सीख छोड़ी न ईश्वर का स्मरण। यहीं से वे कदम-दर-कदम मंजिल की ओर बढ़ चले।
इंडोस्कैंडिक संस्थान के उपाध्यक्ष और स्टॉकहोम में हिन्दू मंदिर के संस्थापक सदस्य सुरेश पाण्डे की यह कृति पुस्तक महल द्वारा प्रकाशित की गई है। इसका मूल्य 195/- रुपए, 10$ है।
लेखक ने बड़ी साफ़गोई से स्वीकार किया है कि स्वीडन उनके अंदर बस गया है और यहां से मातृभूमि को लौटना नामुमकिन है। दर्द-ए-दास्तां और व्यवहारिक सच्चाई को बहुत ही भाव पूर्ण तरीके से लिखा है। अपनी आत्मकथा में वे कहीं भी चालाकी से स्वयं को अच्छा साबित करने के लिए पाठक के साथ छल नहीं करते। अपनी कमियों और चालाकियों को भी किसी आवरण में लपेटे बिना पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने का साहस किया है- अब यह पाठक का काम है कि वह प्रस्तुति को पॉजीटिव ले या नेगेटिव।
मानव जीवन और उसमें घटित होने वाली घटनाओं का महत्व बताते हुए लेखक स्पष्ट करता है कि यही घटनाएं हमें जीवन में सबलता प्रदान करती हैं। जीवन की राहों में मुड़-मुड़ के देखने से आदमी यकीनन नीचे नहीं गिरता।
तीन प्रकार की भाषाएं, तीन प्रकार की संस्कृतियां- मातृभाषा, देश विशेष की भाषा और अंग्रेज़ी जैसी व्यवहारिकता बता्ने के कारण विदेशों में जाने वाले युवाओं को किसी भी दूसरे देश और उसकी संस्कृति को समझने में आसानी होगी, जिससे वहां उनका प्रवास सुनिश्चित हो सकेगा। साथ ही वह किसी ऊहापोह में भी नहीं रहेगा।
विदेशों में रहते हुए भारतीय अपनी संस्कृति और सभ्यता अपने घर की चारदीवारी में ही संरक्षित कर सकते हैं। कारण सीधा है- बाहर के देश हमारी संस्कृति के बजाय अपनी संस्कृति को आगे बढ़ाएंगे। इसमें न तो कुछ गलत है और न कोई अन्याय।
स्वीडन के स्टॉकहोम में 43 वर्षों से कार्यरत होने के बाद भी आज वे माता-पिता के अलावा गुरू की महिमा को नहीं भूलते। गांधीजी से लेकर फ़्रांसीसी क्रांति के सिद्धांतों को मानते हैं- समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता, जिनके बलबूते वे विदेश की कठोर परिस्थितियों को आसानी से झेल गए। लेखक स्पष्ट करता है कि रोने से कुछ नहीं होगा, शांति से सोच-विचार कर परिस्थितियों को समझकर कदम बढ़ाना ही विदेश में रहने का पहला उसूल है।
यह किताब एक एतिहासिक कृति से कम करके नहीं आंकी जा सकती क्योंकि लेखक हमें वर्ष 1915 में भी पहुंचा देते हैं। यों तो इतिहास की किताब में इतिहास लिखा ही होता है, पर हम उससे स्वयं को पूरी तरह नहीं जोड़ पाते। लगता है वह सबका इतिहास है, जबकि इस किताब का इतिहास दिल्ली का होने के कारण अपने पास-पड़ोस का ही लगता है। कहना न होगा यह रचना लेखन की पराकाष्ठा ही है कि शब्दों के माध्यम से पुरानी दिल्ली और दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास स्थित जवाहर नगर घूम लेते हैं।
लेखक ने भाषा शैली को बड़ा ही सरल रखा है, या यह कहें कि बोलचाल की भाषा, जैसे वो जो है न! कथ्य की बात करें तो दिल्ली ही नहीं यूरोप का टूर भी इस पुस्तक से लेखक ने कराया है। भाषा शिल्प भी बेहतरीन है। पाठक को लगता है कि लेखक तो मुझसे ही बात कर रहा है, कुछ मेरे ही विचारों को लिख रहा है।
लेखक ने बड़ी साफ़गोई से स्वीकारा है कि उन्होंने भारत वापस आकर बसने की सोची भी, किन्तु किसी मोड़ पर आकर वे डर भी गए कि कहीं उनके अपने उन्हें नकार न दें। यह डर सिर्फ़ लेखक का ही नहीं है वरन भारत में भी शहर से गांव जाने वाले के मन में भी है।
यादों का इंद्रधनुष 16 चैप्टर और 116 पन्नों का एक दस्तावेज है- उन लोगों के लिए जो विदेशों में बसने का सपना देखते हैं। जो यह सोचते हैं कि विदेश में जीवन संघर्ष रहित होता है। सब कुछ सुहाना होता है। इस किताब के माध्यम से युवा समझ सकेंगे कि विदेश में रहने का अर्थ मेहनत और ईमानदारी के भारतीय संस्कारों को और पुख्ता होकर जीने का है। नई आईडेंटी के चक्कर में अपनी पुरानी भारतीयता की आइडेंटटी खोने की जरूरत नहीं है। हां यह जरूर है कि उक्त देश की सभ्यता और संस्कारों का बराबर सम्मान किया जाए।
मातृभूमि और कर्मभूमि दोनों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। एक ने आपको जीवन की पहचान दी तो दूसरे ने जीवन में कर्मशील बने रहने का हौसला।
एक अन्य बात जो इस कृति में बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत की गई है- यों तो लेखक किसी साहित्यिक बैकग्राउंड से नहीं है फ़िर भी यत्र-तत्र कविताओं की पक्तियों और उक्तियों का यथोचित प्रयोग किया गया है। बालीबुड के गानों का मोह यहां भी लेखक नहीं छोड़ पाए और चंद गानों की चंद पंक्तियों को भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
यह दस्तावेज सीधे तौर पर एक गाइड बुक है विदेश में बसने की इच्छा रखने वालों के लिए कि यदि विदेश जा रहे हैं तो कुछ एकस्ट्रा या विशेष औरों से ज्यादा और अलग हुनर होना चाहिए ताकि आप को बेरंग न लौटना पड़े, इसके लिए देश विशेष की जरूरत और मांग को समझने का तरीका आना चाहिए।
अंत में बस इतना ही कि लेखक की “यादों के इंद्रधनुष” के सहारे दुनिया की सैर कर लो इंसा के दोस्त बन इंसा से प्यार कर लो,” तो लंबे समय तक विदेश में बसना आसान है। लेखक सुरेश पाण्डे को मानवीय मूल्यों को समेटे हुए इस पहले दस्तावेज के लिए हार्दिक बधाई और भविष्य की नई कृतियों के लिए शुभकामनाएं देती हूं।
अरूणा घवाना
(लेखन: बाल कहानी, कविताएं, समीक्षाएं और लेख, चिलड्र्न बुक ट्र्स्ट द्वारा हिन्दी विज्ञान बाल कहानी के लिए पुरस्कृत)

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