धरती हिली, अम्बर हिला मगर नहीं हिले पदमश्री के होंठ

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अब तो पुरस्कार मिल गया पर्यावरणविदो, कुछ बोलोगे?
पहाड़ों की बर्बादी पर पुरस्कार लेते क्या कांपें नहीं हाथ?

पर्यावरणविद अनिल जोशी और कल्याण सिंह रावत को पदम पुरस्कार मिल चुका है। उम्मीद है कि दोनों पर्यावरणविद अब पहाड़ की बर्बादी पर कुछ बोलेंगे। पदम भूषण पुरस्कार अनिल जोशी को मिला है। पहले वो हिमालय बचाने के लिए यात्राएं करते थे और 15 दिन की यात्रा में 600 गांव घूम आते थे। बताते थे कि पहाड़ बर्बाद हो रहा है। बचाओ। हिमालय को लेकर उनके लेख आज भी बड़े-बड़े अखबारों में होते हैं। पढ़कर लगता है कि हिमालय की चिन्ता में उनकी रातों की नींद उड़ी रहती है। ग्रास इंवायरनमेंट प्रॉडक्ट का दम भी वही भरते नजर आते हैं। आईआईटी रुड़की समेत कई प्रमुख संस्थानों के वैज्ञानिक और प्रकृति प्रेमी उन्हें आज भी वर्चुअल सेमिनार में भी बुलाते हैं। लेकिन जब हिमालय में कथित विकास के नाम पर बड़ी परियोजनाएं बनती हैं, जब चारधाम महामार्ग के नाम पर हिमालय को बारूद से उड़ाया जा रहा था या जब कथित स्मार्ट सिटी के नाम पर एयरपोर्ट और सड़क के लिए हजारों पेड़ काटे जा रहे हों तो महाशय जी की बोलती बंद ही रहती है।
उनके कुछ समर्थक तर्क देते हैं कि डा. जोशी विकास के पैरोकार हैं। मेरा कहना है कि रहें, हम कौन से कबीलों के समर्थक हैं। हम भी चाहते हैं कि विकास हों। लेकिन विकास संतुलित तो हो? विकास को कैसे परिभाषित करेंगे? क्या अनिल जोशी की समझ में नहीं आ रहा है कि गंगोत्री में ब्लैक कार्बन क्यों हो रहा है? ऋषिगंगा आपदा क्यों आई? या रैंणी गांव क्यों धंस रहा है? जोशीमठ क्यों दरक रहा है? या हिमालय में झीलें क्यों बन रही हैं? या पहाड़ मंकी लैंड क्यों बन रहा है? बादल क्यों फट रहे हैं, भूस्खलन क्यों हो रहा है? असमय बारिश और बाढ़ क्यों आ रही है? पलायन क्यों हो रहा है?
सीधी बात है, पदम भूषण अनिल जोशी और पदमश्री कल्याण सिंह रावत को पता है कि ये सब क्यों हो रहा हे? लेकिन अब विरोध के सुरों पर पदम पुरस्कारों को ताला लग चुका है। जानकारी के अनुसार कल्याण सिंह देहरादून स्थित अपने घर में केसर उगा रहे हैं, पुरस्कार लेने के बाद उनकी क्या गतिविधि रही है। कितने मंचों पर नजर आए हैं यह शोध का विषय है।
हमें आपके पुरस्कारों से कोई शिकायत नहीं है। आपके पुरस्कार हमारे लिए गर्व का विषय हैं लेकिन महोदय, आपकी यह चुप्पी खलती है। क्योंकि पुरस्कार की तुलना प्रकृति से नहीं हो सकती है। प्रकृति और संस्कृति बचाने के लिए ही तो हमने अलग राज्य मांगा था। जब आप जैसे सक्षम लोग हिमालय पर चुप्पी साध लेंगे, सवाल नहीं उठाएंगे तो फिर हमें ये पुरस्कार शूल से चुभते हैं। पहाड़ की पहचान और अस्तित्व आज भी यथावत है। इसके लिए आप जैसे पर्यावरणविदों की अहम भूमिका और अधिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। वरना ये पुरस्कार उत्तराखंड के जनमानस के लिए किसी काम के नहीं।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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